दोहा
प्रथम नमन कर जोरि, गणपति गौरीनन्द को।
करूं प्रणाम बहोरि, सियाराम हनुमन्त को ।
लिखूं कथा के बोल माँ वाणी के वास में।
रमा रहे मन मोर मणिकुण्डल की आस में।।
अर्थ :- सर्वप्रथम माँ पार्वती के पुत्र श्री गणेश जी को हाथ जोड़ कर नमन करता हूँ । साथ मे प्रभु राम माँ सीता एवं भक्तराज हनुमान जी को प्रणाम करते हुए प्रार्थना करता हूँ कि मेरे मन मस्तिष्क में माँ सरस्वती का निवास हो, जिससे श्री मणिकुण्डल जी के प्रति मेरा मन समर्पित रहे और माँ सरस्वती जी की कृपा से उनकी कथा लिख सकूं ।
दोहा
देहु बुद्धि आशीष निज जननी को है नमन।।
करके हृदय विचार सभी पूर्व जन स्मरण।।
पूर्ण करो जगदीश, राम कृपा का हूँ धनी।
लिखंू धरे शिव-प्रीत मणिकुण्डल की जीवनी।।
अर्थ :- हे मुझे जन्म देने वाली पूजनीय माता मैं आपका एवं सभी पूर्वजो का श्रद्धा सहित स्मरण करता हूँ । आप सबसे यह प्रार्थना करता हूँ कि मुझे विद्या बुद्धि प्रदान करें, जिससे परम् प्रभु जगदीश्वर सदैव हम पर बरसाते रहें और विश्व कल्याण की भावना से मैं मणिकुण्डल जी की जीवनी लिख सकूं।
दोहा
सरयू तटवासी नगर, दशरथ हृदय ललाम।
पुरी अयोध्या जो बसे, मणिकौशल के धाम।।
है सब के दिल में राम का नाम।।
अर्थ:- श्री मणिकुण्डल जी का गृहनगर अयोध्या धाम सरयू जी के तट पर बसा है, वह महाराजा दशरथ के हृदय की शोभा है अर्थात उनके साम्राज्य की राजधानी है, और श्री राम चन्द्र जी यहां के निवासियों (भक्तों) के दिलो में बसे हुए हैं।
दोहा
मणिकुण्डल के जन्म पे, मात पिता हरषाय।
सवा सवा मन मोदका, घर घर दियो पठाय।।
राज से नगर सेठ पद पाय।।2।।
अर्थ:- श्री मणिकुण्डल जी के जन्म के शुभ अवसर पर माता पिता तो हर्षित है ही नगरवासी भी पुलकित है । पिता मणिकौशल को नगर सेठ का पद प्राप्त हुआ है । मणिकौशल द्वारा जन्मोत्सव तथा नगर सेठ पद प्राप्ति की ख़ुशी में सभी नगरवासियों के यहां सवा सवा मन के लड्डू उपहार में भेजे गए है ।। 2 ।
दोहा
मणिकौशल शाकम्भरी, गुरु वशिष्ठ ढिंग जाय।
मणिकुण्डल शुभनाम ले, नामकरण करवाय।।
राजगुरु से वरदान दिलाय।।3।।
अर्थ:- श्री मणिकुण्डल जी एवं शाकम्भरी ने शुभ घड़ी नक्षत्र में गुरु वशिष्ठ जी के समीप जाकर बालक का नामकरण करवाया और राजगुरु से वरदान प्राप्त किया ।। 3 ।
दोहा
रवी पुष्य शुभ पर्व ले, पाठी पूजी जाय।
स्वयं सुमन्त पधार कर, आशिष देहनवाय।।
शारदा मन्दिर दियो पठाय।।4।।
अर्थ:- रविवार पुष्य नक्षत्र शुभ पर्वयुक्त समय घड़ी को देखकर माता सरस्वती के मंदिर में विद्या अध्ययन हेतु पाटी पूजन करवाया गया जिसमें महामंत्री सुमन्त ने स्वयम आकर मणिकुण्डल जी को आशीर्वाद प्रदान किया ।। 4 ।
दोहा
चार वर्ष शिशु खेल में, औरन रहा पढ़ाय।
मध्य मध्य डांटे यथा, स्वयं गुरुजी आय।।
बालपन की चंचलता लाय।।5।।
अर्थ:- बालपन की चंचलता और खेलने की वृति के कारण बालक मणिकुण्डल पढ़ने पढ़ाने का प्रयास करता है तथा अन्य बच्चों को भी पढ़ाने का रूपक करता है । मेधावी बालक पढ़ने में संलग्न हुआ और शीघ्र ही सभी विद्याओं में पारंगत हो गया ।। 5 ।
दोहा
राम गमन दशरथ वचन, हुआ चतुर्दिक शोर।
कालरात्रि सम बीतती, नहीं हो रहा भोर।।
राज कुछ समझ न आवे तोर।।6।।
अर्थ :- अयोध्यापुरी में राजा दशरथ के द्वारा श्री राम को वनवास की आज्ञा दी गई। जिसको जानकर सभी प्रजाजनों में शोक की लहर दौड़ गई । शोक के कारण वह रात कालरात्रि के समान भयंकर हो गई थी और बीतने का नाम नहीं ले रही थी ।। 6 ।
दोहा
ऐसे विपदाकाल में, मणिकौशल ले नाम।
क्या कैसे अब हम करें, बैठ गए निज धाम।।
प्रात ही चल देंगे श्रीराम।।7।।
अर्थ:- इस विपत्ति के समय श्री मणिकौशल जी इस शोक में संतप्त हो गए कि प्रातः काल श्री रामचंद्र जी के चले जाने पर विछोह का दुख मिलेगा । अतः सब काम छोड़ कर घर में बैठ गए ।। 7 ।
दोहा
पिता कष्ट ऐसा लखा, मणिकुण्डल मन मांहि।
कहा-बुला कर लें सभा, सुमति बने सब मांहि।।
राम और राम नाम प्रभुताई।।8।।
अर्थ:- श्री मणिकुण्डल जी ने पिताजी के दुख और शोक संतप्त अवस्था देख कर कहा कि एक सभा बुलाई और सभी बन्धु-बान्धवों से परामर्श करके श्री रामचंद्र जी की शुभकामना और प्रभुता बताकर सब मिलकर सर्वसम्मत अच्छी राय कर ले ।। 8 ।
दोहा
बैठक में निर्णय हुआ, मिलकर रोकें राम।
नहीं रुकें, हम भी चलें, छोड़ अवध सब काम।।
राम के संग ही हो विश्राम।।9।।
अर्थ:- श्री राम जी के वन गमन से शोक ग्रस्त अवधपुरी के स्वजनों की सभा में निर्णय लिया गया कि सभी जन मिलकर श्री राम जी को रोकने के लिए कहें । यदि यह संभव न हो तो हम सभी लोग भी उनके साथ ही अपना सभी काम छोड़कर चल दे । श्री राम जी के साथ ही हमें रहना होगा ।।9।
दोहा
यह निर्णय संकल्प कर, लौटे जन निज वास।
नहीं पलक झपकी तनिक, गई भूख अरु प्यास।।
राम पर इतना है विश्वास।।10।।
अर्थ :- उस रात सभी पुरजन-परिजन यह निर्णय करके घर लौटे और क्षण मात्र के लिए भी नहीं सो सके। उनकी भूख प्यास सब नष्ट हो चुकी थी । श्री राम पर उनकी दृढ़ आस्था थी ।।10।
दोहा
गुरू मात पितु को नमन, सुबह करत रघुनाथ।
वन रूपी कर्मस्थली, तीर धनुष ले हाथ।।
जा रहे राम लखन सिय साथ ।।11।।
अर्थ:- प्रातः काल गुरु,माता-पिता को प्रणाम करके धनुष बाण हाथ में लेकर अपने कर्मक्षेत्र वन में चलने को श्रीराम तत्पर हो गए श्री लक्ष्मण जी और माता श्री सीता जी भी उनके साथ हो गई ।।11।
दोहा
पतझड़ हैं होने लगे, आम नीम सब पेड़।
स्वयं टूटने ही लगी, हर खेतों की मेड़।।
वायु मन पीपल को मत छेड़ ।।12।।
अर्थ:- श्री राम जी के वनगमन के अवसर पर मनुष्य ही नहीं पेड़ पौधे प्रकृति और पर्यावरण भी कष्टमय हो गए । उनकी क्षुब्धता से असमय में पतझड़ होने लगा । आम, नीम, पीपल आदि के पत्र टूट कर गिरने लगे। खेतों की मेड़े टूटने लगी थी और विश्व में सर्वाधिक चंचल अर्थात मन, हवा एवं पीपल भी दुख के कारण स्थिर हो गए है ।।12।
दोहा
पुष्पकली मुरझा रहे, तितली भौंरे पस्त।
भानु उदय के समय भी रवि दिखते हैं अस्त।।
घाघरा जल जलचर सब त्रस्त ।।13।।
अर्थ:- इस महान दुख की घड़ी में सभी फूलों की कलियां मुरझा गई, तितली और भौरे विचलित हो गए। स्वयं सूर्य भगवान अपने वंशज श्री राम के वनगमन से दुखी हो सूर्योदय के समय भी सूर्यास्त के समान कम प्रखर हो गए जिससे घाघरा के जलचर सुस्त और बेचैन हो गए।
दोहा
बादल भी बरसन लगे, आंधी आई जोर।
घोर अंधेरा छा गया, प्रकृति मचावे शोर।।
टूटते पेंड़ रो रहे मोर ।।14।।
अर्थ:- इस विपत्ति में शोकग्रस्त होकर बिना समय के आंधी बादल भयंकर हो उठे, पेड़ टूटने लगे मोर रोने लगे सभी चर-अचर मनुष्य, पशु पक्षी, पेड़ पौधे व्याकुल हो उठे।।14।
दोहा
गौ, बैलन के साथ ही, हाथी रहे चिंघाड़।
घोड़े भी टपटप करें, रोवें मन को मार।।
सारिका, पशु, अणु, व्यथित अपार ।।15।।
अर्थ:- पारिवारिक और सामाजिक पशु गाय, बैल, हाथी, घोड़े सभी विलाप करने लगे चिल्लाने लगे पक्षी सारिका आदि व्यथा से रोने लगे । अयोध्या का वातावरण दुख से भर गया ।।15।
दोहा
मातायें साकेत की, तन मन शोक समाय।
नर नारी अतिवृद्ध भी, लाठी टेकत आय।।
राम को हाथ पकड़ हम लाय।।16।।
अर्थ:- अयोध्या वासी बृज नर नारी माताएं श्री राम के वन गमन के शोक में डबल हो उठे अति व्रत चयन हाथ में लाठी पकड़ कर चल पड़ेगी हम श्री राम को लोड चलने के लिए अनु नयन विनय करेंगे और प्रेम पूर्वक उन्हें राजी कर लेंगे कि वह 1 ना जाएं
दोहा
मुखमलीन सबको रहयो, नहि मज्जन भी कीन।
राम विरह की कल्पना में बिलखे ज्यो मीन।।
हो गया आज अवध श्री हीन ।।17।।
अर्थ:- श्री राम जी के वन जाने से अयोध्या उजाड़ लग रही है उसकी श्री लक्ष्मी साथी चली गई है अतः वह श्री हिना हो गई है इस भाव की कल्पना मैं ही सभी अयोध्यावासी रो रहे हैं बिलख रहे हैं किसी ने भी सुबह मुख नहीं धोया सभी बिना पानी के मछली की तरह बिलख रहे हैं |
दोहा
निर्णय के अनुसार ही वैश्य कहें युवराज।
आप हमारे प्राण हैं, बिना प्राण नहिं काज।।
छोड़ कर मत जाओं प्रभु आज ।।18।।
अर्थ :- अयोध्या नगरी के श्रेष्ठगण और वैश्य समाज श्रीराम से प्रार्थना कर रहा है, कि आप ही हमारे युवराज हैं हमारे प्राण हैं, हमें छोड़ कर ना जाओ ।।18।
दोहा
यह कहि कहिं कर लेट गै, अवध वणिक पथ माय।
प्रभु अचम्भित का करैं, इन कैसे समझाय।।
राम तो प्रेम विवश हो जाय।।19।।
अर्थ:- इस विनय और आग्रह के साथ सभी अवधपुरी के व्यापारी गण मार्ग में लेट गए श्री राम जी को उनके प्रेम ने अचंभित कर दिया और और करुणा से विचलित कर दिया ।।19।
दोहा
राम सिया करबद्ध हो, अग्रज को सिरनाय।
अनुजजनों को प्यार से, पितु आज्ञा बतलाय।।
राम संग लखन सबै समझाय।।20।।
अर्थ:- इस दृश्य को देखकर प्रभु श्री राम एवं माता सीता ने अपने से बुजुर्गों को नमन एवं युवाओं को प्यार से पिता की आज्ञा बताई । श्री लक्ष्मण जी ने भी सभी प्रेमीजनों को अपनी असमर्थता और पिता की आज्ञा को समझा कर बताया ।।20।
दोहा
मणिकुण्डल मानी सकल, पितु आज्ञा को धर्म।
हम सब भी संग ही रहे, यही हमारा मर्म।।
राजसुत मत रोको मम कर्म ।।21।।
अर्थ:- श्री मणिकुण्डल जी श्री राम जी के अनन्य भक्त थे । उन्होंने विनय करते हुए श्री राम जी से उनके साथ चलने की आज्ञा चाही और कहा कि ऐसे भक्तवत्सल यह सच है कि पिता की आज्ञा का पालन करना आपका धर्म है उसे आप पूरा करें परंतु हम सब आपके साथ रहने की इच्छा अपने मन में रखते हैं। कृपया आप हम सब को अपने कर्तव्य करने से ना रोके।
दोहा
जहाँ राम तहं अवध है, नहीं अवध बिन राम।।
राम संग वन अवध है, अवध बचा क्या काम।।
हैं चला अवध नगर संग राम।।22।।
अर्थ :- यह कह कर सभी अवधवासी श्रीराम जी के साथ चल पड़े, उन्होंने कहा कि जहां श्रीराम है वही अयोध्या है। राम के साथ हमारे लिए जंगल भी अयोध्या है, जहां वह नहीं है वहां कुछ बचा ही नहीं अतः यहां पर अब हमारा कोई काम नहीं रह गया । इसी विचार से अयोध्या निवासी बड़ी संख्या में राम जी के साथ चल दिए ।।22।
दोहा
लखनलाल जी चल रहे,राम सिया के संग।
अवध निवासी साथ में, देखें प्रभु के रंग।।
देव यह देख हो रहे दंग।।23।।
अर्थ:- श्री राम सीता और लक्ष्मण के साथ अयोध्यावासियों को देखकर प्रभु प्रेम व सानिध्य की महिमा देखकर देवतागण चकित हो रहे हैं ।।23।
दोहा
चलते चलते थक गये, नहीं पथिक विश्राम।
राम निरख सुख के लिये नहीं छाँह और घाम।।
आज हर मन में बसे श्री राम ।24।।
अर्थ:- बिना विश्राम किए सभी लोग श्री राम जी को देखते हुए उनके साथ चल रहे थे। उन्हें थकान नहीं थी, उन्हें छाव और धूप से भी कुछ परवाह नहीं थी । उनके मन में तो बस श्रीराम ही बसे हुए थे।।24।
दोहा
अगले दिन भी चल पड़े, चैबीस कोस प्रमान।
मणिकुण्डल बालक कहिन, ले लो प्रभु से ज्ञान
राम अवतारी हैं भगवान ।।25।।
अर्थ:- अगले दिन तक 24 कोस चल चुके थे। श्री मणिकुण्डल जी बालक थे उन्होंने श्रीराम जी से जगत के ज्ञान को जानने की प्रार्थना की और श्रीराम जी इस संसार में क्यों अवतरित हुए है। यह भी बताने को कहा साथ ही अन्य बंधुओं को प्रेरणा देते हुए कहां की श्रीराम जी अवतार पुरुष है, हमें उनसे ज्ञान प्राप्त करना चाहिए ।।25।
दोहा
अवध जनों का साथ लख, सुरगण भये अधीर।
भक्त बेड़िया प्रेम की, प्रभू बंधे जन्जीर।।
राम अवतार ध्येय अब नीर ।।26।।
अर्थ :- प्रभु श्रीराम के साथ अयोध्यावासियों को देखकर देवताओं का धैर्य समाप्त होने लगा। वे सोचने लगे कि भगवान तो भक्तों की भक्ति और प्रेम में बंद जाते हैं। अयोध्यावासी भी उन्हें अपनी प्रेम व भक्ति में बांधे हुए हैं। ऐसे में पृथ्वी से आसुरी ताकत को नष्ट करने का उद्देश्य (जिस कारण राम ने अवतार लिया है) का क्या होगा।।26।
दोहा
नारद जी कहने लगे, मत विचलो सुरपक्ष।
विधना ने जो जो रचा, तेहि विधि होगा अक्ष।।
साधना धैर्य पूर्ण कर लक्ष।।27।।
अर्थ:- श्रीराम जी के साथ भक्त अयोध्या निवासियों को लगातार चलते देखकर देवताओं को चिंता होने लगी इस पर नारद जी ने कहा कि आप लोग इस अवसर पर विचलित न हो। जो कुछ भी श्री ब्रह्मा जी ने नियत किया है येन केन प्रकारेण सब कुछ वही होगा, आप लोग धैर्य धारण रखें करें।।27।
दोहा
इसी तरह से दो दिवस, गये बीत प्रभु मौन।
संग लगे जो अवध जन, उन्हें मनावे कौन।।
बात सब मन की जानै जौन ।।28।।
अर्थ:- इस प्रकार श्रीराम जी के साथ चलते हुए दो दिन व्यतीत हो गए, जो अयोध्यावासी साथ चल रहे थे। उनके मन की बात श्री राम जी जानते थे फिर भी उन्हें उनके मन के विपरीत नहीं कह सके।।28।
दोहा
सियासंग प्रभु राम ने, किया विचार प्रवाह।
आज रात्रि ही चल पड़ें, संग लखन निज राह।।
औतरण का उद्देश्य अथाह ।।29।।
अर्थ:- प्रभु श्रीराम ने निश्चय किया कि इन सभी प्रेमी और भक्त जनों को रात्रि में सोता छोड़कर अपनी यात्रा को आगे बढ़ाएंगे। जिससे संसार में अवतरित होने (जन्म लेने) का उद्देश्य पूर्ण कर सकें। इन्हे कहने से यह प्रेमीजन दुखी होंगे।।29।
दोहा
भक्त जो कोई जग गया, तनिक भनक भी पाय।
सकल अयोध्या नगर जन संग राम लग जाय।।
कष्ट में भक्त न देखे जाँय।।30।।
अर्थ :- उन्होंने मन में सोचा यदि इनमें से कोई जाग जाएगा तो हमारा साथ नहीं छोड़ेगा। अतः उनको जागते में छोड़कर चलना और कष्ट देना उचित नहीं होगा।।30।।
दोहा
मध्य रात्रि में उठ पड़े राम लखन सिय संग।
भक्त विचारे सो रहे, कल क्या होगा रंग।।
राम बिन सब होवेंगे दंग।।31।।
अर्थ:- श्रीराम माता सीता जी और श्री लक्ष्मण जी आधी रात में ही सो रहे भक्तों को सोता छोड़ कर चल पड़े। श्रीराम के बिना सभी जब जागेंगे तब महान आश्चर्य तो होगा ही ।।31।।
दोहा
विभू भक्त सब छोड़ कर, चले सघन वन ओर।
यथाशीघ्र हो दूरतम, जब लौ होवे भोर।।
राम मन विचलित भक्तन ओर ।।32।।
अर्थ:- यह सोच कर भगवान श्रीराम घने जंगलों की ओर शीघ्रता से चल पड़े । जिससे प्रातः काल से पहले ही उन सभी को छोड़कर दूर निकल जाएं । यद्यपि श्रीराम का मन उन भक्तों के मन की व्यथा से विचलित हो रहा था, परंतु संसार के कल्याण के लिए उन्हें दूर जाना पड़ रहा था ।।32।।
दोहा
रात्रि अंधेरा व्याप था, नहिं प्रकाश का छोर।
कंकड़ पत्थर गड्ढ भी रोके पग हर ओर ।।
राम के कदम न पीछे ओर ।।33।।
अर्थ:- अंधेरी रात थी कहीं प्रकाश नहीं था। कंकड़ पत्थर गड्ढे आदि भी बहुत थे, किंतु कठिनाइयों को सहकार भी श्री राम आगे बढ़ते ही जा रहे थे ।।33।।
दोहा
सिया राजकुल में पली, साधन आठो याम।
उत्तल अवतल भूमि पर, चले लखन सिय राम।।
आज नहिं करना है विश्राम ।।34।।
अर्थ श्री सीता माता जी राजकुल में सभी सुख-सुविधाओं के साथ पली थी, किंतु आज वह श्रीराम जी और श्री लक्ष्मण जी के साथ ऊंची नीची भूमि पर चले जा रही थी। उन्हें भी आज विश्राम नहीं करना था ।।34।।
दोहा
उषा किरण पहली भई, गये निकल अति दूर ।
इधर भक्तजन जागते, ढूंढे निकट व दूर ।।
राम का मोह चढ़ा भरपूर ।।35।।
अर्थ :- प्रातः काल उषा की पहली किरण में जब भक्तजन जगे तब तक श्रीराम जी दूर निकल गए थे। भक्तों के मन में श्री राम की प्रेम भक्ति और मोह तो था ही , श्रीराम के रात्रि में चुपचाप चले जाने से वे सब व्यथित थे व्याकुल थे।।35।
दोहा
जब जाना श्री राम जी, गये जानकी संग
कहु बिलखे, कुछ सुस्त भै, हुए ध्यान सब भंग ।।
रो रहे अवध चले जो संग ।।36।।
अर्थ:- जब उनको ज्ञान हुआ कि श्रीराम जी श्री जानकी जी और श्री लक्ष्मण जी के साथ जा चुके हैं तब कुछ ने अवधपुरी लौटने का मन बनाया तो कुछ ने वहीं रुक जाने का निश्चय किया। सभी दुखी होकर रुदन कर रहे थे, निराश हो गए थे, तथा कुछ के तो सोचने की शक्ति ही विचलित हो गई थी अर्थात एकाग्रता भंग हो गई थी ।।36।
दोहा
कुछ लौटे थे अवध पर, शेष कहंे हम जाय।
जहां मिलेगे राम जी, वहीं कुटी बनवाय।।
ढूंढने आठ दिशायें जाय।।37।।
अर्थ:- कुछ लोग अयोध्या लौटे तो कुछ कहने लगे हम श्रीराम जी को ढूंढेंगे और जहां वह होंगे वही हम कुटिया बनाकर रहेंगे। हम आठो दिशाओं में उन्हें ढूंढेंगे। अर्थात बिना राम के हम अयोध्या वापस नहीं जाएंगे ।।37।
दोहा
कुछ प्रयाग को चल पड़े चित्रकूट कोई जाय।
विविध दिशाओं में चले, सब अनुमान लगाय।।
ढूंढते रामचरण भरमाय ।।38।।
अर्थ:- कुछ लोग प्रयाग कुछ चित्रकूट तथा कुछ अन्य दिशाओं में राम जी के चरणों का अनुगमन करते हुए चल पड़े। इस प्रकार अपने अपने अनुमान से लोग अलग-अलग दिशाओं में श्रीराम जी को ढूंढने चले गए ।।38।
दोहा
अवधजनों की टोलियाँ, बिखर गई चहुंओर।
मणिकौशल भी चल रहे, माँ गंगा के छोर
काशि तक निकल गये सिरमौर ।।39।।
अर्थ:- अवधपुर वासियों की टोलियां चारों ओर बिखर कर श्रीराम जी को ढूंढने को निकल पड़ी । श्री मणिकौशल जी भी गंगा जी के किनारे किनारे काशी तक पहुंच गए ।।39।
दोहा
जनकपुरी को चल दिये, सम्भवतः मिल जाँय।
रामसिया उस क्षेंत्र में निज वनवास बितायं।।
रात दिन अवध वैश्य बतलायं।।40।।
अर्थ:- अयोध्या का वैश्य समाज श्रीराम जी को ढूंढते हुए जनकपुरी तक पहुंचा। इस आशा के साथ कि शायद श्रीराम जी अपने वनवास के दिनों में प्रवास करते हुए यहीं पर मिल जाए ।।40।
दोहा
गया पाटलीपुत्र अरू सीतामढ़ी बिहार।
ढूंढ ढूंढ कर थक रहे, बस जावें दुइ चार।।
राम बस मिल जावें इक बार ।।41।।
अर्थ:- वे लोग गया, पाटलिपुत्र सीतामढ़ी, बिहार आदि अनेक स्थानों पर श्रीराम जी को ढूंढते ढूंढते कुछ लोग विभिन्न स्थानों पर ही निवास करने लगे कि उन्हें आशा थी कि वही पर शायद एक बार ही प्रभु श्रीराम जी उन्हें मिल जाए ।।41।
दोहा
उधर रामसिय लखन को चित्रकूट मन भाय।
मंदाकिन सानिध्य में फटिक शिला हर्षाय।
यहीं पर रह वनवास बिताय।।42।।
अर्थ:- उधर श्री रामचंद्र जी, माया सीता जी, श्री लक्ष्मण जी चित्रकूट पहुंच चुके थे। उन्हें मंदाकिनी के सानिध्य में स्फटिक शिला का स्थान बहुत अच्छा लगा । यहीं पर उन्होंने अपना वनवास बिताने का निश्चय किया ।।42।
दोहा
चित्रकूट पहुंचे जभी, अवधपुरी के लाल।
पाकर प्रभु को पास में, सब जन हो उत्ताल।।
आस्था-प्रभु पा वैश्य निहाल ।।43।।
अर्थ:- जब अयोध्या के लाल अर्थात श्री राम जी और श्री लक्ष्मण जी चित्रकूट पहुंचे और कुछ अयोध्यावासी उनको वहां पर भी पहुंचकर मिलने में सफल हो गए तब प्रभु आस्था और प्रभु प्रेम पाकर सभी निहाल हो गए और चित्रकूट में ही रहने लगे ।।43।
दोहा
भरत मनाने राम को चित्रकूट जब आए।
संग अवध की प्रजा भी दर्शनार्थ वन आए।।
राम के संग मगर रह जाए।।44।।
अर्थ :- जब श्री भरत जी प्रभु श्रीराम जी को मनाने चित्रकूट आये तब अवध की प्रजा भी उनके साथ थी । उनके मन में यही अभिलाषा थी कि हम भी प्रभु राम के दर्शन करेंगे, परंतु राम जी के वनवास पूरा करने के निश्चय के कारण वहां आकर वह सब वहीं पर (बुंदेलखंड) में ही रहने लगे।।44।
दोहा
मंदाकिन वन क्षेत्र में , ग्रीष्म शीत का जोर ।
पावस में घनघोर तुम , कहूँ कीट कहूँ मोर ।।
वामदा नगर बसायो जोर ।।45।।
अर्थ:- प्रभु के साथ रहने की चाह में मंदाकिनी नदी के समीपवर्ती जंगलों व पहाड़ों में गर्मी में अत्यधिक गर्मी व सर्दी में अत्यधिक जाडा होता है । बरसात में घनघोर अंधेरा कीट, पतंगा, सर्प, मोर आदि थे परंतु राम भक्त अयोध्यावासियों ने वहीं पर रहना प्रारंभ किया और उसे वामदा (वर्धमान बांदा) का नाम दिया ।।45।
दोहा
मगर टोलियां अन्य जो , विविध दिशा भटकाय ।
मणिकौशल मिथिला सहित, यशपुर भी हो आये ।।
राम का पता मगर नहीं पाए ।।46।।
अर्थ:- अनेक टोलियां जो मिथिला सहित अन्य दिशाओं में गई थी, उसमें श्री मणिकौशल जी सहित कुछ लोग यशपुर तक पहुंचे परंतु श्रीराम जी का पता नहीं लग सका ।।46।।
दोहा
मणिकुण्डल पितु मात संग , करे राम की खोज।
उत्तर से दक्षिण चले , रहा हृदय में ओज ।।
राम बल से ही सफल प्रयोज ।।47।।
अर्थ:- अपने माता पिता के साथ श्री मणिकुण्डल जी श्रीराम जी की खोज में उत्तर से दक्षिण सभी दिशा में गए । उनके हृदय में श्रीराम का प्रेम ओजस्वी प्रेरणा बनकर हिलौर ले रहा था ।।47।
दोहा
इसी तरह से चल रहे पगडंडी कहूं जाएं ।
कोलभील जो भी मिले , सब मिल उन्हें बताएं ।।
राम से ही मिलने हम जाएं ।।48।।
अर्थ :- इस प्रकार वह अनेक लोगों से कोलभीलो से मिलते हुए पगडंडियों से श्री राम से मिलने को आतुर होकर चलते ही चले गए ।।48।
दोहा
चलते चलते मिल गया, वेणुगंग का तीर।
मणिकौशल संग वैश्य जन, कुछ कुछ हुए अधीर।।
मानसी व्यथा हरो रघुवीर ।।49।।
अर्थ:- श्री मणिकौशल जी के साथ चलते हुए राम भक्त वैश्य समाज वेणुगंगा के तट तक पहुंचा, और श्रीराम जी से प्रार्थना करने लगा कि हे श्रीराम हमारे मन की व्यथा का हरण करो और हमें अपने दर्शन दो ।।49।।
दोहा
मन्द मन्द गति चल रहे, साथ करै व्यापार।
राम मिलन के हेतु हम कष्ट सहेंगे अपार।।
यही है जीवन का है आधार ।।50।।
अर्थ:- इस प्रकार यह वैश्य समाज श्रीराम जी को खोजता भी जा रहा था और व्यापार भी करता जा रहा था, उनका विचार था कि हम सभी कष्ट सहकर भी श्रीराम को खोज ही लेंगे क्योंकि राम जी का सानिध्य पाना ही जीवन का उद्देश्य है ।।50।
दोहा
जंगल में वनफल मिलें, नगर दुग्ध गौ पाय।
जगह जगह पर भटककर कर्मनिष्ठ कहलाय।
राम मन मन्दिर सदा बसाय ।।51।।
अर्थ:- प्रवास कर रहे आदिवासियों को जंगल में जंगली फल तथा नगर में गौ दूध प्राप्त हो जाता था। किंतु अपने लक्ष्य के प्रति सजग रहते हुए वे कर्मनिष्ठ थे और श्रीराम जी को मन में बसाये हुए थे ।।51।।
दोहा
जहां जाय तहँ पूछते, आये क्या रघुनाथ।
मगर नहीं कोई कहै, हमें मिले जगनाथ।।
राम सिय दर्शन दो अब साथ ।।52।।
अर्थ :- वह जहां भी पहुंचते थे सबसे पूछते थे कि क्या श्रीराम जी इधर आए हैं। किंतु कोई सार्थक उत्तर नहीं मिलता था और वह मन ही मन प्रार्थना करते थे कि है सीताराम हम सबको अपने दर्शन देने की कृपा करें ।।52।।
दोहा
अमरावति जलग्राम या मलयगिरी उत्तंग।
अवध वणिक गण ढूंढते चर्चा करे प्रसंग
देवगण चकित देख यह रंग ।।53।।
अर्थ:- अयोध्या के वैश्य जन ( व्यापारीगण ) अमरावती जलग्राम( जलगांव ) नगरों एवं मलयगिरी पर्वत इत्यादि में भटकते रहे और भगवान श्रीराम जी को ढूंढते रहे । देवता उनके राम प्रेम को देखकर आश्चर्यचकित हुए ।।53।।
दोहा
विविध नगर व ग्राम में ढूंढे मानी हार।
नगरी भौवन में किया कई वर्ष व्यापार।।
वैश्य मणिकौशल कीर्ति अपार ।। 54।।
अर्थ:- तमाम नगरों एवं ग्रामों में ढूंढने पर भी जब श्रीराम जी नहीं मिले तो मणिकौशल जी कुछ हताश हुए और भौवन नाम के नगर में व्यापार करते हुए वहीं रहने लगे। वहीं पर मणिकुंडल जी ने यौवनावस्था प्राप्त की।।54।
दोहा
भौवन में ही मिल गया, गौतम नामी मित्र।
मधुभाषी, मिथ्या, कपट, पापाचार विचित्र।।
झूठमय प्रस्तुत करता चित्र।।55।।
अर्थ:- उन्हें वहां गौतम नाम का एक मित्र मिला जो मधुभाषी था और साथ मे कपटी भी था, तथा झूठ और पापाचार मैं लिप्त था, और अपने हित के लिए झूठे वर्णन करने में कुशल था ।।55।।
दोहा
उसका मन षड़यन्त्र कर, अन्तःगर्वित हाय।
धोखा, हमला, कष्ट दे, स्वयं प्रफुल्लित पाय।।
साधुजन को पीड़ा मन भाय।।56।।
अर्थ:- उसका मन बहुत छली और कपटी था , धोखा, हमला, और कष्ट देने में वह चतुर था। साधुजनों को दुख पहुंचाने में उसे सुख मिलता था ।।56।
दोहा
मणिकुण्डल धर्मात्मा, गौतम द्वेष विचार।
मोहक बातों में रिझा, कह विदेश व्यापार।।
ले चला अवधलाल को पार ।।57।।
अर्थ:- श्री मणिकुंडल जी धर्मात्मा थे, गौतम अधर्मी और द्वेष विचार रखने वाला था । दूसरे देश और नगर में व्यापार करने हेतु छल छदम की मोहक बातों में रिझाकर गौतम उन्हें अपने साथ चलने को मनाने में सफल हो गया।।57।
दोहा
पितु से आज्ञा मांग कर, निकल चले परदेश ।
गले लगा माता कहें सफल रहो हर देश
राम, सच और आचरण, वेश ।।58।।
अर्थ:- श्री मणिकुण्डल जी ने पिताजी से आज्ञा लेकर परदेश में व्यापार करने के लिए चल पड़े, गले लगाकर माता ने आशीर्वाद दिया कि प्रभु श्रीराम, सच, सदाचार और उचित वेशभूषा का सदैव ध्यान रखना क्योंकि व्यक्ति के व्यक्तित्व और कृतित्व पर इसका विशेष प्रभाव पड़ता है।।58।
दोहा
चलते चलते निकल गै नए नगर की ओर।
भौतिक सुख सम्पन्न था रहे सभी सिरमोर।।
काममद गौतम ढूंढे ठोर ।।59।।
अर्थ:- गौतम भी मणिकुण्डल जी के साथ था वह किसी अवसर की ताक में था कि उन्हें धोखा दे सके। चलते चलते यह लोग नए नगर की ओर पहुंच गए। जो भौतिक सुख संपदा से भरपूर था। वहां पहुंचकर गौतम अपनी कामुक भावनाओ की प्राप्ति हेतु स्थान ढूंढने लगा।।59।
दोहा
मणिकुण्डल से बोलता गौतम भ्रष्ट चरित्र ।
जीवन में है क्या धरा, भोगो हर सुख मित्र।।
यौन सुख ही जीवन का इत्र ।।60।।
अर्थ:- गौतम श्री मणिकुण्डल जी को पर दुराचरण करने और यौन सुख भोगने की शिक्षा देता था। वह कहता था कि जीवन का असली उद्देश्य तो हर प्रकार के आनंद लेना ही है।।60।।
दोहा
इतने कुत्सित भाव सुन मणिकुण्डल हैं दंग ।
गौतम पाप विचार है कैसे दूँ सत्संग।।
देव लख केर बेर को संग ।।61।।
अर्थ:- उसके इस प्रकार के पापपूर्ण गंदे भाव जान के श्री मणिकुण्डल जी आश्चर्यचकित रह गए। वे सोचने लगे कि अपने मित्र को किस प्रकार सत्परामर्श प्रदान करुं । देवतागण सोच रहे थे कि इस मित्रता का परिणाम क्या होगा क्योंकि यह तो केला और बेर की मित्रता है यह कैसे निभेगी ।।61।।
दोहा
मणिकुण्डल कहने लगे ‘‘धर्म जगत का सार।
सत्य विलग कुछ भी नहीं, मिथ्या फिर संसार।।
प्राण ही हैं जीवन आधार’’ ।।62।।
अर्थ:- श्री मणिकुण्डल जी ने उससे कहा कि इस संसार में धर्म ही मुख्य जीवन का आधार होता है । सत्य के बिना यह संसार झूठ है । जिस प्रकार प्राण ही जीवन का आधार है उसी प्रकार धर्म और चरित्र ही श्रेष्ठा का आधार है ।।62।।
दोहा
सत्कर्मो के पुण्य से, जीवन धन्य महान।
पापकर्म दुख शोक दें, वेद शास्त्र का ज्ञान।।
ईश ने ऐसा रचा विधान ।।63।।
अर्थ:- अच्छे और शुभ कर्म करने से जीवन धन्य और महान होता है । पाप कर्म करने से दुख और शोक की प्राप्ति होती है। वेदों ने भी यही कहा है कि भगवान ने ऐसा ही विधान बनाया है ।।63।।
दोहा
पर पीड़ा निन्दा करे, कुछ दिन हो अधिमान ।
पतन मार्ग पर स्खलित होकर हो अवमान।।
ईष्र्या भाव नशावै मान ।64।।
अर्थ:- दूसरे की बुराई कर कोई व्यक्ति कुछ दिन प्रसन्न हो सकता है क्योंकि जो दूसरों को कष्ट देता है वह कुछ दिन ही ऐसा कर सकता है, अंत में उसका पतन होता है। ईर्ष्या का विचार मन में पाप उत्पन्न करता है जो अंततः मान सम्मान को नष्ट करता है।।64।।
दोहा
इस पर गौतम ने कहा, मणिकुण्डल हे मीत।
जिसका कथन यथार्थ हो उसकी होगी जीत
जीत धन लेने की है रीत ।।65।।
अर्थ:- इस बात को सुनकर गौतम ने कहा कि किसी भी प्रकार से धन कामना ही जीवन की जीत है । चाहे वह पाप कर्म के द्वारा ही हो, जिसकी बात में सत्यता होगी उसे ही जीत मिलेगी । इस प्रकार के पाप पुण्य मिथ्या वचन कह कर वह श्री मणिकुण्डल जी को विचलित करने लगा क्योंकि उसका मन धन हरण करने का रहा था ।।65।
दोहा
‘एवमस्तु’ कह वैश्य ने, मानी गौतम शर्त।
नगर जनों से पूछने लगे ब्रह्म का अर्थ।।
ब्राह्मण सुत का प्रश्न अनर्थ ।।66।।
अर्थ:- ऐसा ही हो कहकर वैश्य श्रेष्ठ श्री मणिकुण्डल जी ने गौतम की शर्त मान ली तथा उपस्थित नगर जनों से ईश्वर (ब्रह्म) के होने का अर्थ प्रतिपादित करने को कहा । परंतु गौतम ने मूल प्रश्न को बदलकर पूछा और प्रश्न में ही अर्थ का अनर्थ कर दिया जो अंततः अनर्थ ही सिद्ध हुआ ।।66।
दोहा
धर्म सत्य पालन करें, जीवन बने पहार।
या फिर विविध प्रयास से सुख धनमय संसार।
लोक में कौन अधिक व्यवहार? ।।67।।
अर्थ:- गौतम ने प्रश्न का आधार बदला और कहा कि क्या जो सत्य , धर्म का पालन करते हुए कष्टमय जीवन यापन करता है, वह या वह जो धर्म अधर्म का बिना विचार किए किसी भी प्रकार से धन अर्जित करता है वह , इनमें से श्रेष्ठ कौन है ? संसार में किसे व्यवहार कुशल और सही माना जाना चाहिए ।।67।
दोहा
नगर जनों ने तब कहा, भौतिकता का देश।
कैसे सुख, धन-धान्य हो, यही रहा उद्देश।।
याद अब किसे प्रभू-सन्देश ।।68।।
अर्थ:- उस स्थान पर उपस्थित नगर के लोगों ने उत्तर दिया कि पहले समय में कुछ आदर्श और सत्यवादी लोग चाहे रहे हो , किंतु इस समय तो भौतिक सुख सुविधा पाने के लिए जिस प्रकार धन धान्य मिल सके उसी उपाय को अपनाना ही संसार में उपयुक्त माना जा रहा है । अब ईश्वर का सत्य संदेश सभी भूल चुके हैं ।।68।
दोहा
नगर लोक व्यवहार में, तिकड़म छल परिवेश।
किस विधि सबकुछ पा सकूं, सबका यह उद्देश।।
रात दिन जियें मरें करें क्लेश ।।69।।
अर्थ:- वर्तमान समय में संसार में धर्म-अधर्म, सत्य झूठ आदि किन्ही भी नैतिक मूल्यों का कोई महत्व नहीं रह गया है। अब तो छल और प्रवंचना के द्वारा किसी प्रकार भी केवल धन कमाना ही मनुष्य का उद्देश्य रह गया है। धर्म के लिए नहीं अधर्म पूर्वक जीवन जीने के लिए ही लोग दिन-रात कष्ट, क्लेश का वातावरण बना कर जी रहे हैं।।69।
दोहा
इस पर गौतम ने कहा, मैं जीता हरहाल।
मणिकुण्डल ने दे दिया, साराधन तत्काल।।
देख मणिकुण्डल हृदय विशाल ।।70।।
अर्थ:- नगर - समाज में लोगों की इस बात को सुनकर गौतम ने कहा कि अब तो मैं जीत गया हूं , हर प्रकार से मेरी ही जीत हुई है। इस बात को सुनकर सत्यवादी धर्म-परायण श्री मणिकुण्डल जी ने अपने असत्यवादी, छली, कपटी मित्र को अपना सारा धन दे दिया । लोगों ने इस विशाल और उदार हृदय वाले महापुरुष की उदारता को देखा।।70।
दोहा
नगर पारकर चल पड़े, गोदावरि के तीर।
योगेश्वर श्रीवास जहँ, था एकान्त समीर।।
बोलता गौतम कटुता तीर ।।71।।
अर्थ:- श्री मणिकुण्डल जी और गौतम दोनों ही इस नगर से आगे जाने को चल पड़े। अब वह लोग गोदावरी नदी के समीप पहुंच गए , जहां श्री भगवान योगेश्वर का वास था, वहा एकांत भी था और शुद्ध वायु वह रही थी । यहां पहुंचकर कपटी गौतम ने कटुता पूर्वक बातें कहीं।।71
दोहा
उसने विविध विवाद कर, क्षत विक्षत कर अंग।
चला छोड़कर मित्र को, त्याग मित्रता रंग।।
देव विश्वासघात लख दंग ।।72।।
अर्थ:- इस एकांत स्थान पर कुचाली मित्र गौतम ने श्री मणिकुण्डल जी की धन संपत्ति को तो छीन ही लिया, और उन्हें घायल भी कर दिया। उनके अंग प्रत्यंग चोट से जख्मी कर दिये, और अनेक प्रकार से विवाद करके मित्रता का व्यवहार छोड़कर अकेले मित्र को कष्ट में डाल कर चला गया। इस व्यवहार को देखकर देवता भी दंग रह गए।।72।
दोहा
मन्दिर पावन था निकट, योगविष्णु का वास।
अगहन सुदि एकादशी, छिटकै दिव्य प्रकाश।।
देव, मुनि, मन में दर्शन प्यास।73।।
अर्थ:- उसी स्थान से थोड़ी दूर पर श्री विष्णु जी के योगिराज स्वरूप का भव्य मंदिर था, जहां पवित्रता का प्रकाश छिटका हुआ था । यह अवसर अगहन के शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन का था, जिसे श्री गीता जयंती तथा मोक्षदा एकादशी भी कहते हैं। इस स्थान के दर्शन की इच्छा देवताओं और ऋषि मुनियों के में सदैव रहती है।।73।
दोहा
महिमा चक्षुस्तीर्थ की, ऋषिमिल करें बखान।
चक्षु मिले, जीवन मिले, यश-वैभव की खान।।
मात्र दर्शन गौदान समान।।74।।
अर्थ:- यह स्थान चक्षुस्तीर्थं था, जिसके महत्व का ऋषि-मुनियों ने अनेक प्रकार से वर्णन किया है। इस स्थान की यात्रा करने और पवित्रता पूर्वक साधना करने वाले को नेत्र ज्योति प्राप्त होती है, जीवन और स्वास्थ्य मिलता है, तथा यश एवं वैभव की प्राप्ति होती है । इस पवित्र स्थान का दर्शन मात्र ही अनेक पुण्यो को देने वाला है तथा गौदान के समान फल प्रदान करता है।।74।
दोहा
लंकापति राजा भये, नियमित दर्शन पाय।
विशल्यकरणि, संजीवनी से जीवन मिल जाय।।
वैभीषणि संग विभीषण आय।।75।।
अर्थ:- इस स्थान का दर्शन करके ही विभीषण को लंका का राजा होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था । वही विभीषण जी अपने पुत्र वैभिषणी जी के साथ श्री मणिकुण्डल जी के समक्ष विशल्यकर्णी औषधि को लेकर उपस्थित हो गए । विशल्यकर्णी बूटी किसी भी प्रकार की शारीरिक चोट व घाव को तुरंत ठीक कर देती है एवं नवजीवन प्रदान करती है।।75।
दोहा
मणिकुण्डल से पूछते वैभीषणि कर नेह।
क्या परिचय, कैसे हुये, क्षत विक्षत केहि देेह।।
गौतमी गंगा द्रवित सनेह।।76।।
अर्थ:- युवराज वैभिषणी गोमती गंगा के तट पर श्री मणिकुण्डल जी को क्षत-विक्षत हालत में देखकर पूछते है कि आपको यह घाव और चोट किस प्रकार लगी है । आपका परिचय क्या है । इस प्रेम पूर्वक व्यवहार से स्नेह का द्रावण गंगा जल के समान ही हो गया।।76।
दोहा
अवध निवासी वैश्य हूँ, राम भक्ति हिय वास।
पग पग ढंूढूं राम को, धर्म, सत्य, विश्वास।।
मानता खुद को प्रभु का दास।।77।।
अर्थ:- श्री मणिकुण्डल जी ने उत्तर दिया कि मैं अयोध्या में निवास करने वाला वैश्य एवं श्री राम का भक्त हूँ । मेरे हृदय में श्री राम जी का निवास है। मैं निरंतर हर कदम पर उन्हीं श्री राम को ढूंढ रहा हूं जो धर्म, सत्य और विश्वास में रमे हुए हैं। मैं अपने को श्री राम का सेवक मानता हूँ ।।77।
दोहा
सुनर ऐसी भावना, हुये विभीषण शान्त।
भेषज, मन्त्र प्रबन्धकर नष्ट करें तन क्लान्त।
आ रही पुनः प्रखरता कान्त।।78।।
अर्थ:- इस उत्तर को सुनकर और भक्ति भावना को देखकर विभीषण जी के मन को प्रसन्ता एवं सुख शांति प्राप्त हुई । उन्होंने तत्काल श्री मणिकुण्डल जी के घायल शरीर से सभी दुख दर्द मिटाने वाले उपाय किये, औषधि और मंत्र के उपयोग से रोग से मुक्ति दिला दी तथा स्वस्थ सुंदर कान्तिमयी युक्त शरीर को प्रदान कर दिया।।78।
दोहा
पुनः स्वस्थ सर्वांग हो, मणिकुण्डल भै दंग।
चमत्कार है हरि कृपा, हरि इच्छा हरि रंग।।
करूंगा हरि सेवा, सत्संग।।79।।
अर्थ:- अपने शरीर से सभी रोगों तथा दुख दर्द को दूर होने तथा सर्वांग सुंदर रुप पुनः पाया देखकर श्री मणिकुण्डल जी आश्चर्यचकित हो गए । यह ईश्वर की कृपा का चमत्कार और उन्हीं परमपिता परमेश्वर की इच्छा का परिणाम ही है, ऐसा मानकर उन्होंने प्रतिज्ञा की कि अब मैं सदैव ही श्री हरि (विष्णु)जी का सेवा परायण होकर सत्संग करता रहूंगा।।79।
दोहा
अखिल राष्ट्र की एकता, मन में लिये विचार।
दक्षिण उत्तर सभ्यता का हो मिलन अपार।।
राम का विष्णु रूप आधार।।80।।
अर्थ:- श्री मणिकुण्डल जी ने उत्तर और दक्षिण में देश की एकता का पावन प्रसंग देखा, और समूचे राष्ट्र की एकता को मजबूत करने का विचार किया । उन्होंने इसका आधार श्री राम के विष्णु रूप में स्थापित पाया।।80।
दोहा
ध्यानयोग की विधि रची, शिव ने होकर मस्त।
ध्यानयोग अभ्यास से मणिकुण्डल सिद्धहस्त।।
शोक, भय अरू तनाव हैं पस्त।।81।।
अर्थ:- भगवान श्री शंकर जी ने संसार को ध्यान योग की विधि आनन्दित होकर प्रदान की है। जिससे कि संपूर्ण संसार आनंदमयी हो सके, श्री मणिकुण्डल जी ने इसी ध्यान योग का अभ्यास करके अपने तन एवं मन के शोक, भय , चिंता और तनाव आदि विकारो को दूर कर लिया था।।81।
दोहा
परहित का संकल्प ले, चलते चलते तीर।
महाबली के देश में जा पहुंचे मनधीर।।
जानकर राजसुता की पीर।।82।।
अर्थ:- दूसरों की भलाई करना ही अपना धर्म समझकर तथा संकल्प लेकर वह महाबली नामक राजा के राज्य महापुर में जा पहुंचे वहां की राजकुमारी अत्याधिक बीमार एवं कष्टमय स्थिति में थी।।82।
दोहा
ऊंची जँह अट्टालिका, सुन्दर पक्के कूप।
नौ नौ घट भर बालिका, चले छाँह या धूप।।
नागरिक सुखी विहंसता रुप।।83।।
अर्थ:- वहां उस राज्य में ऊंचे ऊंचे भवन एवं अट्टालिकाएं बनी हुई थी, स्वच्छ जल के कुएं थे, अनेक बालिकाएं नए नए घड़ो में जल भरकर चल रही थी, धूप तथा छांव का सुंदर सुयोग था। सभी नगर वासी सुखी और प्रसन्न थे।।83।
दोहा
गौपालन की साधना, नगर ग्राम सब पाय।
वस्त्राभूषण से सजे, बहुजन पग पग आय।।
देखकर मणिकुण्डल सुख पाय।।84।।
अर्थ:- इस नगर में गौ सेवा का धर्म था। सभी नगर वासी सुंदर वस्त्रों और आभूषणों से सुसज्जित थे । इस दृश्य को देखकर श्री मणिकुण्डल जी के मन में खुशी का संचार हुआ।।।84।।
दोहा
गए राजप्रासाद जब, राजसुता बीमार।
मरणासन स्थिति विकट, मूर्छा करै प्रहार।।
कास, व्रण, ज्वर अरु वमन अपार।।85।।
अर्थ:- श्री मणिकुण्डल जी राजभवन में भी गए। वहां राजकुमारी को बीमार देखा राजकुमारी की स्थिति मृत्यु के समीप थी, उसे बार-बार बेहोशी हो जाती थी । खांसी, घाव, बुखार तथा उल्टी हो जाती थी, वह अपार कष्ट मे थी।।85।
दोहा
मरणासन स्थिति लखी महरुपा निःशक्त।
दिव्यमन्त्र औषधि सहित पूजन करें सशक्त।।
साधना होकर भाव विरक्त।।86।।
अर्थ:- राजकुमारी की स्थिति मृत्यु के समीप थी। उसमें बहुत कमजोरी हो गई थी, उसकी चिकित्सा और स्वास्थ्य के लिए देवताओं को प्रसन्न करने वाले मंत्र तथा औषधियों की जरूरत थी। अतः उन्होंने विरक्तभाव से साधना प्रारंभ कर दी।।86।
दोहा
सिंहराशि पर वास था, शनि का साढ़े सात।
वक्रदृष्टि भी शेष सब, आज खत्म हो जात।।
सूर्य-सुत नमन करौं शिव-प्रात।।87।।
अर्थ:- ज्योतिष योग के अनुसार बीमार राजकुमारी के ग्रह नक्षत्र अनुकूल नहीं थे। सिंह राशि पर शनि की साढ़ेसाती का वास् था। सभी ग्रह वक्री थे। सूर्य पुत्र शनिदेव को प्रसन्न करने से ही यह कष्ट दूर हो सकते थे । संजोग से आज शनि ग्रह की विपरीतता समाप्त हो रही थी, और सिंह राशि वाले (श्री मणिकुण्डल जी व महारूपा ) पर शनि ग्रह भी कल्याणकारी हो रहे थे।।87।
दोहा
औषधि, मन्त्र, पुकार-हिय, भाग्य चक्र का वेग।
शनै शनै सिंहराशिनी, भई स्वस्थ सम्वेग।।
सोच से परे प्रकट आवेग।।88।।
अर्थ:- श्री मणिकुण्डल जी ने इन सभी बुरे ग्रह दोष और रोग लक्षणों को देखकर रोगिणी की सेवा सुश्रुपा आरंभ कर दी । दवाइयों और मंत्रों से व अपने हृदय के प्रेम और नेक भाव से उन्होंने रोग के वेग को रोक लिया तथा सिंह राशि वाली उस राजकुमारी महारूपा को स्वस्थ कर दिया । यह चमत्कार सोच से परे ही था।।88।
दोहा
महरूपा आनन्दमय, दृश्य सभी लख पाय।*
जन्म-अन्ध का दोष भी सदा सदा को जाय।।
राज्य में कौतूहल हर्षाय।।89।।
अर्थ:- महरूपा नाम की उस राजकुमारी की जन्म से ही आंखों में रोशनी नहीं थी और अनेक शारीरिक एवं मानसिक व्याधियां उसको घेरे हुई थी । श्री मणिकुण्डल जी के प्रयत्न से उसकी जन्मांध दोष तथा सभी व्याधियां समाप्त हो गई । राज्य भर में उनके यश का बखान होने लगा।।89।
दोहा
नयनों में पहली उषा, दिव्य दृष्टि का भान।
नव कलरव, अदभुत नया, बदल गये प्रतिमान।।
चीरकर तम आलोकित भान।।90।।
अर्थ:- उस राजकुमारी के नेत्रों में ज्योति आ गई, जिससे उसने जीवन में पहली बार प्रभात की ऊषा का सुंदर दर्शन किया , पक्षियों का चहचहाना सुना । सभी प्रकार के तन और मन का अंधकार उसी प्रकार मिट गया जिस प्रकार प्रकाश की किरण अंधेरे को नष्ट कर देती है।।90।
दोहा
विविध रंग भी लख रही, झिलमिल झिलमिल रुप।
लगा जगत सब चमत्कृत, नव आनन्द स्वरुप।।
आशमय हुआ निराशित रुप।।91।।
अर्थ:- जन्म से न देख सकने वाली उस राजकुमारी की आंखों में रोशनी का संचार हो गया । वह सभी प्रकार के रंगों का दर्शन करने लगी, इस भिन्न-भिन्न प्रकार के सौन्दर्य को देखकर उसे संसार में चमत्कार तथा अद्भुत आनंद का सुख मिला । वह अपने जीवन से निराश थी, उसे आशा का नया सवेरा मिल गया।।91।
दोहा
महाबली की घोषणा, राजपाठ अर्धांग।
मणिकुण्डल को दे रहे, महराजा राज्यांग।।
ले रहे नहीं मगर गौरांग।।92।।
अर्थ:- उस राज्य के राजा का नाम महाबली था । उसकी घोषणा थी कि जो राजकुमारी की बीमारी दूर करके उसे स्वस्थ कर देगा उसे आधा राज्यपाठ दे दिया जाएगा । इसी प्रतिज्ञा के कारण श्री मणिकुण्डल जी कोआधा राज्य देने की घोषणा की गई । किंतु उन्होंने विनम्रता पूर्वक इसे स्वीकार करने से मना कर दिया।।92।
दोहा
मन मन्दिर में छा गये, मणिकुण्डल के काज।
अर्ध नहीं पूरा दिया महाबली ने राज।।
राम हनुमान कृपा यह ताज।।93।।
अर्थ:- श्री मणिकुण्डल जी के परोपकारी एवं निर्लोभी व्यक्तित्व से प्रभावित होकर राजा के मन में उनके प्रति आदर भाव बढ़ गया अतः राजा महाबली ने पूरा राज्य उन्हें दे दिया। श्री मणिकुण्डल जी ने इसे भी रामचंद्र जी एवं श्री हनुमान जी की कृपा के रूप में स्वीकार किया।।93।
दोहा
महरुपा श्रद्धा विनत, नमन करें बहुबार।
‘‘यह जीवन है आपका, करो मुझे स्वीकार।।
मीन मैं तुम जल का संसार’’।।94।।
अर्थ:- राजकुमारी महारूपा ने श्री मणिकुण्डल जी से निवेदन किया कि यह जीवन आपका ही दिया हुआ है, आप जल का सागर और मैं मछली के समान हूँ। अतः आपके बिना मेरा जीना संभव नहीं है, कृप्या मुझे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करें।।94।
दोहा
ध्यान किया पितुमात का, रामकृपा यह मान।
राजसुता संग राज्य को स्वीकारा श्रीमान।।
देश की प्रजा करे सम्मान।।95।।
अर्थ:- माता-पिता का स्मरण करके श्री मणिकुण्डल जी ने राजकुमारी के साथ ही राज्य को भी स्वीकार कर लिया, प्रभु श्री राम जी की कृपा से राजा बनने पर उनका प्रजाजनों ने उत्साह पूर्वक सम्मान किया।।95।
दोहा
नगरी भौवन में बसे, मात पिता बुलवाय।
महाबली से प्राप्त सुख का अनुभव करवाय।।
मातपितु को यशवान बनाय।।96।।
अर्थ:- महाराजा श्री मणिकुण्डल जी ने भौवन नगर में निवास कर रहे माता-पिता को भी बुलवा लिया । उनके उत्तम कार्यों से माता-पिता को भी सम्मान प्राप्त हुआ । वह यशस्वी बने और उन्हें भी राजसी सुख की प्राप्ति हुई।।96।।
दोहा
महाराज बन सोचते जनता का कल्यान।
सियाराम दर्शन ललक, करने अवध प्रयान।।
राम से ही जीवन-सन्धान।।97।।
अर्थ:- राजा बनकर श्री मणिकुण्डल जी शासन करने लगे और जनता के लिए कल्याणकारी काम करने लगे, किंतु मन में श्री रामचंद्र जी एवं सीता माता जी के दर्शन की लालसा और भी बलवती होने लगी । उन्होंने सियाराम जी के दर्शन हेतु अवधपुरी जाने का निश्चय किया क्योंकि श्रीराम से ही जीवन का उद्धार संभव है।।97।
दोहा
करने दर्शन राम के जाऊं अवध-निवास।
आदि शक्ति का यज्ञ कर मणिकुण्डल विश्वास।।
राम तो शीघ्र मिलेंगे आस।।98।।
अर्थ:- उन्हें अपने मन में पूर्ण विश्वास था कि भगवती आदिशक्ति दुर्गा जी का यज्ञ पूर्ण करने से अतिशीघ्र ही अयोध्या जी में श्री राम जी के दर्शन हो जावेंगे।।98।
दोहा
महापुरी से चल दिये महरुपा के साथ।
सप्तश्रंग आश्रम गये, जोड़े दोनों हाथ।।
राजरथ उतर नमाते माथ।।99।।
अर्थ:- महापुरी से महारूपा महारानी के साथ श्री मणिकुण्डल जी अयोध्या पुरी के लिए चल दिए । रास्ते में सप्तश्रृंग आश्रम गए । जहां विनम्रता पूर्वक दोनों हाथ जोड़कर, रथ से उतरकर प्रार्थना-अर्चना की।।99।
दोहा
रामटेक की घाटियाँ, उच्च शिखर रज-राम।
शीश नमन करते हुये, दोनों करैं प्रणाम।।
दे रहे हों वरदाँ श्री राम।।100।।
अर्थ:- उन्होंने रामटेक की घाटियों और शिखरों को प्रणाम करते हुए नतमस्तक होकर श्री राम जी के चरणों से पवित्र हुई धूल को धारण किया तथा अनुभव किया कि श्री रामचंद्र जी का वरदान प्राप्त हो रहा है।।100।।
दोहा
सिवनी जंगल पारकर, गये नर्मदा तीर।
भेड़ाघाट प्रताप लख, तन मन हुआ अधीर।।
प्राकृतिक लीला निर्झर नीर।।101।।
अर्थ:- सिवनी का जंगल पार करके नर्मदा जी के समीप पहुंचे। भेड़ाघाट का झरना देखकर मन में उत्साह और अधीरता का अनुभव हुआ । प्राकृतिक लीला और झरने का जल उन्हें आत्मा का अनंत आनंद प्रदान कर रहा था।।101।
दोहा
मैहर शरभंगा लखत पहुंचे सिद्ध पहार।
चित्रकूट को बढ़ चले लेने राम बयार।।
राम की तपोभूमि का प्यार ।।102।।
अर्थ:- आगे चलते हुए वह मैहर, शरभंगा, सिद्ध पहाड़ का दर्शन करते हुए चित्रकूट पहुंचे जिसे श्रीराम जी की तपोभूमि होने का गौरव प्राप्त हुआ है।।102।
दोहा
मन्दाकिनि स्नान कर, गोदावरी मझाय।
कामदगिरी परिक्रमा मनोकामना पाय।।
राम की हर स्मृति सिर नाय।।103।।
अर्थ:- चित्रकूट में मंदाकिनी जी में स्नान किया और गुप्त गोदावरी के पवित्र जल का स्पर्श किया, तथा मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाले कामदगिरी की परिक्रमा की और वहां श्री राम जी से जुड़े हर स्थल को नमन कर तथा हर प्रकार से याद करके अपने जन्म को सफल बनाया।।103।
दोहा
चित्रकूट आगे बढ़े, अवध वणिक आगार।
नगर वामदा में मिले, बिछुड़े वणिक हजार।।
बालपन की यादें दो चार।।104।।
अर्थ:- अब चित्रकूट से आगे बढ़ते हुए कई बस्तियों में गए वहां पर अयोध्यावासियों के झुंड के झुंड निवास करते मिले। वामद (वर्धमान नाम बांदा) में तो हजारों अयोध्यावासी वैश्य परिवार के पूर्व परिचित बचपन के अभिन्न मित्रों से मुलाकात हुई।।104।
दोहा
बालपन की यादें दो चार।।104।।
मानवता कल्याण का दृढ़ संकल्प विचार।
सूर्य-सुता को नाव से पति पत्नी कर पार।।
जा रहे ब्रह्मावर्त कछार।।105।।
अर्थ :- वहां से आगे चलते हुए संसार में प्राणी मात्र का कल्याण करने की इच्छा रखने वाले श्री मणिकुण्डल जी श्री जमुना नदी को पत्नी सहित नाव से पार करके ब्रह्मावर्त (वर्तमान नाम बिठूर) के कछार तक पहुंच गए।।105।
दोहा
विश्वधुरी गंगातटे, ब्रह्मावर्त पुनीत।
वाल्मीकि तपलीन जहँ दर्शन करें सुभीत।।
रानि संग मणिकुण्डल प्रभु प्रीत।।106।।
अर्थ:- संसार की धुरी माने जाने वाले गंगा जी के तट पर स्थित ब्रह्मावर्त (बिठूर) प्रमुख पवित्र स्थल है। यहां ब्रह्मा खूँटी है। बिठूर में बाल्मीकि जी तपस्यारत थे। संसार की धूरी- ब्रह्मा की पवित्रता, बाल्मीकि जी की तपस्थली के दर्शन करते हुए रानी के साथ श्री मणिकुण्डल जी प्रेम सहित भगवान के प्रेम और भक्ति में निमग्न हो गए।।106।
दोहा
लोधेश्वर अभिषेक कर पारिजात की ओर।
बोरलिया में नमन कर अवधपुरी की ओर।।
राम की छठा दिखे चहुँ ओर।।107।।
अर्थ:- उन्होंने अपनी यात्रा को आगे जारी रखते हुए भगवान लोधेश्वर का अभिषेक किया, पारिजात वृक्ष का दर्शन किया। बोरलिया मैं नतमस्तक हुए और चारों ओर भक्ति पूर्वक श्रीराम जी की छटा के दर्शन करते हुए अयोध्या जी की ओर पुनः बढ़ चले।।107।
दोहा
हरियाली फैली डगर, खुशहाली हर भोर।
पवन-मलय, ऋतुराज ऋतु, आम्र म॰जरी बोर।।
झूमते बालवृद्ध चितचोर।।108।।
अर्थ:- रास्ते में बसंत ऋतु की सुहानी छटा का अवलोकन करते हुए आगे बढ़ रहे थे । चारों और हरियाली और खुशहाली फैली हुई थी । चंदन से सुरभित वायु जब आम के बौरो को छूकर तन मन और आत्मा को आनंदित करती थी ऐसे मनमोहक वातावरण में बालवृद्ध सभी प्रसन्नता का अनुभव कर रहे हैं।।108।
दोहा
मुर्ग बांग भी दे रहे, रवि शशि नित्य प्रकाश।
चिड़िया चीं चीं कर कहें, आपस का विश्वास।।
राम से देवलोक आभास।।109।।
अर्थ :- संसार में पशु पक्षी और मनुष्य सभी को श्री राम के देव लोक का आभास प्राप्त हो रहा था । सुबह होने की सूचना मुर्गे की बांग से मिल रही थी । चिड़िया चहक रही थी। सूर्य चंद्र का प्रकाश संसार में जीवन का संचार कर रहा था,और यह सब इतने स्वाभाविक रूप से हो रहा था कि प्रभु श्रीराम यहीं कहीं विराजमान है यही आभास हो रहा था।।109।
दोहा
अवध नगर में आ गये, रहे चतुर्दिक हेर।
निज निवास पहुंचे जभी, लिये पड़ोसी घेर।।
आ रहे हो तुम पहली बेर।।110।।
अर्थ:- श्री मणिकुण्डल जी अब अवध नगर में आ चुके हैं । अपने पैतृक निवास में पहुंच चुके हैं, पड़ोसी लोग चारों ओर से घेर कर कहते हैं यह बहुत ही आनंदमय है कि बहुत समय के बाद तुम अयोध्या आए हो।।110।
दोहा
राम मिलन के वास्ते अवध जनों के साथ।
चले राम दरबार को महरुपा के साथ।।
ले चले भेंट कीमती हाथ।।111।।
अर्थ:- अब महारानी महरूपा के साथ कीमती भेंट लेकर श्री राम से मिलने के लिए अयोध्यावासियों के साथ राम दरबार की ओर चल पड़े।।111।
दोहा
राम दिव्य दरबार में पहुंचे भक्त तमाम।
मणिकुण्डल चरनन पड़े, पत्नी सहित प्रणाम।।
हार्दिक सुखपाते सियराम।।112।।
अर्थ:- श्रीराम जी के दरबार में मणिकुण्डल जी के साथ अनेक भक्त दर्शन करने के लिए पहुंच चुके है। श्रीमणिकुण्डल जी अपनी पत्नी के साथ श्री रामचंद्र जी के चरणों में नतमस्तक होकर दण्डवत प्रणाम करने लगे । मणिकुण्डल जी का भक्तिभाव देखकर प्रभु श्रीराम व सीता जी को हृदय में अनंत सुख और आनंद का अनुभव हुआ।।112।
दोहा
‘‘कहाँ कहाँ ढू़ँढा तुम्हे, नगर, ग्राम वन छोर।
इतने वर्षों में मिले, हम तड़पे क्यों भोर?।
राम क्या सुधि आई थी मोर?।।113।।
अर्थ :- श्रीराम जी से मणिकुण्डल जी ने कहा कि आपके रात्रि में ही चले जाने पर हम सभी सुबह बहुत दुखी हुए तड़के आपके दर्शन पाने के लिए हम वन वन ढूंढते रहे। किंतु आपका दर्शन आज बहुत समय बाद हो रहा है । हम धन्य हो रहे हैं। श्रीराम जी क्या हमारी याद भी आपको आई थी?।।113।
दोहा
स्वामी तीनहु लोक के गले मिल रहे आज।
मणिकण्ुडल को दे रहे चक्रवर्ति का ताज।।
देवगण समझ न पाये राज।।114।।
अर्थ:- तीनों लोकों के स्वामी श्रीराम के गले मिलकर मणिकुण्डल जी महाराज को अब चक्रवर्ती सम्राट होने का आभास करा दिया है। देवता भी इस रहस्य को नहीं जान सके।114।
दोहा
महरुपा को दे रही, माँ सीता आशीष।
सुख, सौभाग्य अखण्ड हो, पुत्र रहें गुणधीश।।
चार सौ युग तक कीर्ति-अशीष।।115।।
अर्थ:- महारानी महरूपा को माता सीता जी आशीर्वाद दे रही हैं, वह कहती हैं तुम्हारा सुख सौभाग्य सदैव बना रहे तुम्हारे पुत्र गुणवान हो चार सौ युगों तक तुम्हारी कीर्ति संसार में व्याप्त होती रहे।।115।
दोहा
लखन, उर्मिला, माण्डवी, भरत संग हनुमान
श्रुतिकीर्ति शत्रुघ्न अरु गुरु वशिष्ट का मान।।
दोऊ सबको कर रहे प्रणाम।।116।।
अर्थ:- श्री लक्ष्मण जी, उर्मिला मांडवी भारत और श्री हनुमान जी तथा श्रुति कीर्ति शत्रुघ्न एवं गुरु वशिष्ठ जी का सम्मान करते हुए दोनों पति-पत्नी सभी को प्रणाम कर रहे हैं।।116।
दोहा
हनुमान जी कह रहे, मन जो राम बसाय।
हम उसकी रक्षा करें, प्रेम सहित गुण गाय।।
आपके वंशज भी सुख पाय।।117।।
अर्थ :- श्री हनुमान जी कह रहे हैं कि जिनके मन में श्री रामचंद्र जी का निवास होता है, हम उसकी सदैव रक्षा करते हैं। आप श्री रामचंद्र जी की भक्ति पूर्वक गुणगान करते हैं, अतएव सदैव आप के वंशज भी सुखी होंगे।।117।
दोहा
कलियुग में वंशज तेरे बहु मन्दिर बनवाय।
जन्म दिवस पूजन करें, नित्य ध्यान मन लाय।।
पौष पूरनमासी व्रत पाय।।118।।
अर्थ:- ऐ मणिकुण्डल महाराज! कलयुग में आपके वंशज अनेक मंदिर बनवा पूजा-अर्चना करेंगे, जन्मदिवस पर पूजन करेंगे, ध्यान लगाकर मन में ध्यान धारण करेंगे, पौष मास की पूरन मासी को व्रत करेंगे तो उन्हें श्री राम जी की कृपा प्राप्त होगी।।118।
दोहा
मणिकुण्डल व्रत जो रहे, मनवांछित फल पाय।
यश, धन, विद्या, पुत्र भी, सहज प्राप्त हो जाय।।
राम हनुमान कृपा नित पाय।।119।।
अर्थ:- जो लोग मणिकुण्डल जी का व्रत करेंगे उन्हें मनवांछित फल प्राप्त होगा। यश, धन, विद्या, पुत्र की प्राप्ति होगी, श्रीराम जी और हनुमान जी की कृपा उन्हें सदैव प्राप्त होती रहेगी।।119।
दोहा
मणिकुण्डल जन्मस्थली, मन्दिर कलियुग माय।
निकट गढ़ी हनुमान के अवध वणिक बनवाय।।
राजगुरु खुद भविष्य बतलाय।।120।।
अर्थ:- राजगुरु महर्षि वशिष्ठ जी ने भविष्यवाणी करते हुए कहा कि श्री मणिकुण्डल जी की जन्मस्थली पर कलियुग में हनुमान गढ़ी के निकट श्री अयोध्या जी के वर्णित मंदिर का निर्माण करवाएंगे।।
दोहा
घर प्रतिमा तेरी रखें, वास्तुदोष हों दूर।
उर में मणिकुण्डल कवच, रुके काम सब पूर।।
आरती दे ताकत भरपूर।।121।।
अर्थ :- यदि कोई अपने घर में आपकी प्रतिमा की स्थापना करेगा तो वहां के वास्तु दोष दूर हो जाएंगे । मणिकुण्डल कवच धारण करेगा तो उसके सभी रुके हुए काम पूरे हो जाएंगे । आप की आरती करने वालों को शक्ति और संपन्नता प्राप्त होगी ह्रदय में भक्ति जागृत होगी।।121।
दोहा
इसी तरह से प्रमुख जन, सब दीन्ही आशीष।
मंगल भाव बटोर सब, पुनः नवायो शीष।।
राम सिय-पद पर धर कर शीश।।122।।
अर्थ:- इस प्रकार के अनेकों आशीर्वाद सभी प्रमुख जनों के द्वारा श्री मणिकुण्डल जी को प्राप्त हुए, मणिकुण्डल जी ने हृदय में मंगल भावना रखते हुए पुनः सब को प्रणाम किया। श्री सीताराम जी के पैरों पर सिर रखकर प्रणाम किया।।122।
दोहा
मणिकुण्डल महपुर चले, विदा करत श्रीराम।
भक्तों की रक्षा करें, संकट हरते राम।।
राम का नाम मन्त्र फलकाम।।123।।
अर्थ:- श्री मणिकुण्डल महाराज सब से मिलकर महापुरी के लिए चले । श्रीराम जी से विदा मांगी । श्री रामचंद्र जी सबकी रक्षा करें सभी के संकट श्री रामचंद्र जी की कृपा से नष्ट होते हैं । श्री राम नाम महामंत्र है । इससे सभी कामनाओं की पूर्ति होती है।।123।
दोहा
वरदाँ अरु आशीष पा महापुरी जब आय।
जननायक बन राजकर मणि माणिक सुत पाय।।
राम की याद सदा मन भाय।।124।।
अर्थ:- वरदान और आशीर्वाद प्राप्त करके जब श्री मणिकुण्डल जी महापुरी वापस आगए । तब जनता को अपना नेतृत्व देते हुए उन्हें मणि और माणिक पुत्र रत्नों से प्राप्त हुई । उनके मन में श्री राम की याद सदैव बनी रहती थी।।124||
दोहा
कुशल राज्य शासन किया, साधे आठो अंग।
कष्ट रहित हों प्रजानन, सबमें बढ़े उमंग।।
खेल, साहित्य, धर्मपथ संग।।125।।
अर्थ:- श्री मणिकुण्डलजी ने शासन व्यवस्था के आठो अंगों की व्यवस्था का संतुलन करते हुए कुशलता से महापुर पर राज किया। राज्य में खेलकूद साहित्य संस्कृति इत्यादि का समुचित विकास करते हुए प्रजा के कष्टों को भी दूर करते रहे, जिससे प्रजा सुखी और आनंदमयी रही।।125।
दोहा
पुराणादि वर्णन करें मणिकुण्डल महराज।
नमन उमाशंकर करें, कर दो सबकेकाज।।
कामना पूरी कर दो आज।।126।।
अर्थ:- श्री मणिकुण्डल जी की यशोगाथा पुराणों में वर्णित है श्री उमाशंकर उनके चरणों में बारंबार वंदना करते हैं। हे मणि कुंडल महाराज आप सबकी मनोकामना पूर्ण कर दे।।126।
दोहा
एहि भाँति मणिकुण्डल कथामृत उमाशंकर गावहीं।
मन माँहि धर ले ध्यान जो कौतुक जगत में लावहीं।।1।।
विश्वास उर अन्तर बसा लो जीत जग में जावहीं।
श्रद्धा सहित कर पाठ श्रुतिजन सहित द्रुतफल पावहीं।।2।।
अर्थ:- इस प्रकार श्री मणिकुण्डल कथा अमृत का गान श्री उमाशंकर जी के द्वारा किया गया । अपने मन में जो ध्यान धर कर विश्वासपूर्वक श्रद्धासहित इस कथामृत का पाठ करेगा उसे सब प्रकार से के सुखों की प्राप्ति होगी।।
दोहा
कथामृत जो कोई सुने,सब संकट हों दूर।
सिद्धि, भक्ति, धन-धान्य, यश , सुख-सम्पति भरपूर।।
मनवांछित फल प्राप्त हो, संस्कारित सन्तान।
श्रवण, पठन से नित बढ़े, ज्ञान और सम्मान।।
राम, लखन, सीता भरत, हृदय बसहु हनुमान।
मणिकुण्डल शत्रुघ्न संग करैं राम गुणगान।।
सियावर रामचन्द्र की जय। पवनसुत हनुमान की जय।
महाराजा मणिकुण्डल की जय।।🙏🙏🙏
अर्थ:- जो कोई इस कथामृत को सुनेगा । उसके सभी कष्ट दूर हो जाएंगे । उसे हर प्रकार की सिद्धियां प्राप्त होंगी । भक्ति धन धन्य यश सुख संपत्ति से वह भरपूर रहेगा मनवांछित फल प्राप्त होंगे संस्कारवान संतान की प्राप्त होगी । इसके श्रद्धापूर्वक पाठ करने से ज्ञान और सम्मान भी मिलेगा । श्री रामचंद्र जी, श्री लक्ष्मण जी, श्री भरत जी का हृदय में वास रहेगा । हनुमान जी की कृपा प्राप्त होती रहेगी । श्री मणिकुण्डल जी श्री शत्रुघ्न जी के साथ श्री राम जी का गुणगान करते हैं। हम सब लोग मिलकर कहे श्री सियावर रामचंद्र की जय, पवनसुत हनुमान जी की जय, महाराजा मणिकुण्डल जी की जय।।🙏
🙏इतिश्री कथा समाप्तम🙏