ऋग्वेद एवं यजुर्वेद में वैश्य वर्ण उत्पत्ति के संदर्भ में प्रमाण मिलता है: 'उरु तदस्य वद्वैस्य' ऋग्वेद 10/90/12 यजुर्वेद अ0 31 मं0 11
अर्थात
वैश्य जाति उसके (ब्रह्मा) की दोनों जंघाओं से उत्पन्न हुई है।
इसी प्रकार शतपथ ब्राह्मण में लिखा है:
भूरित वै प्रजापर्ति ब्रम्हा अजन्यत्।
भुवि इति क्षत्रं स्व इति वैश्यम् ।।
एता वद्वै इदं सर्व यद् ब्रम्हा क्षत्रं विट् ।।
अर्थात्
भू यह शब्द उच्चारण करके प्रजापति ने ब्राह्मण को, भुव इस शब्द से क्षत्रिय को और स्वः यह शब्द उच्चारण करके वैश्य को उत्पन्न किया, यह समस्त विश्व मंडल ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि वैश्य वर्ण का अस्तित्व वैदिक काल में होने के प्रमाण मिलते हैं यद्यपि सृष्टि के आदि पुरुष मनु के बारे में विभिन्न श्रुतियां मिलती है यथा प्रत्येक वर्ण की मनु अलग अलग थे किंतु हमें इन विवादों में ना पड़कर वैश्य वर्ण के प्रादुर्भाव, कर्म इत्यादि का अध्ययन करना है । यथा - आदिकवि महर्षि बाल्मीकि अपने अमर ग्रंथ 'वाल्मीकि रामायण' में मानव मात्र के जन्म के बारे में जटायु राम मिलन प्रसंग में उल्लेख किया है । उक्त ग्रंथ में भगवान राम से जटायु कहता है - हे नर श्रेष्ठ ! महात्मा कश्यप की पत्नी मनु ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र जाति वाले मनुष्यों को जन्म दिया। प्रमाणार्थ देखें :
मनुर्मनुष्या चनयत् कश्यप्स्य महात्मनः।
ब्रम्हणान् क्षत्रियान वैश्या च शूद्रान्च ममुजर्षभ ।। (३/६४/२९)
उपरोक्त श्लोक से स्पष्ट होता है कि वर्ण आधारित जाति व्यवस्था अति प्राचीन है यही चार वर्ण प्रधान हैं शेष वर्ण संकर हैं मनुस्मृति में हिंदू समाज की वर्ण व्यवस्था के संदर्भ में लिखा है:
ब्राम्हण: क्षत्रियो वैश्यश्त्रयो वर्षा द्विजतयः ।
चतुर्थ एक जातिस्तु शूद्रो नास्ति तु प चमः ।।
(मनुस्मृति 10/4)
अर्थात्
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तीनों द्विजाति और चौथा वर्ण शूद्र पांचवा वर्ण कोई नहीं है। भगवान श्री कृष्ण ने भी कहा है:
चतुर्वण्यं मया सृष्टम् गुण कर्म विभागशः।
अर्थात् गुण और कर्म भेद से मेरे चार वर्ण बनाए गए हैं इन सभी वर्णों में कोई भ्रम ना उत्पन्न होने पावे इसी कारण प्रत्येक वर्ण की कर्तव्य (कर्म ) भी मनु जी ने निर्धारित कर दिए हैं यथा:
ब्राह्मण: तपो ज्ञान: तपः क्षत्रियस्य रक्षणम्।
वैशस्य तु तपो वार्ता तपः शूद्रस्य सेवनम्।।
(मनुस्मृति 11/235)
अर्थात्
ब्राह्मण का तप ज्ञान क्षत्रिय का तप रक्षा करना, वैश्य का तप व्यापार करना तथा शुद्र का तप सेवा करना है। उस समय वर्ण व्यवस्था जन्म आधारित न होकर कर्म आधारित थी जो कालांतर में परंपराओं के कारण हो गई । 'प्रमाण स्वरूप मनु जी ने वैश्य कर्म एवं विशेष परिस्थितियों में वैकल्पिक व्यवस्था के बारे में स्पष्ट लिखा है:
पशनाम् रक्षणम् दानमिंज्याध्ययमेव च।
वणिक्यथम् कुसीदेच वैश्यस्य कृषिमेव च।।
(मनुस्मृति 10/90)
अर्थात्
पशुपालन, दान, यज्ञ, वेद अध्ययन , वाणिज्य और कृषि , वैश्य के कर्म नियत किए गए हैं। और देखें :
वैश्योअजीवंसवधर्मेण शूद्र वृत्यति वर्तयते।
अनाचारणनकार्यनि निवर्तेत च शक्तिमान्।।
(मनुस्मृति 10/98)
अर्थात्
"वैश्य अपने कर्म से निर्वाह न कर सके तो शूद्र वृत्ति से जीविका करें और जब समर्थ हो जावे तब शूद्र वृत्ति छोड़ दे।"
इस प्रकार स्पष्ट है वर्ण व्यवस्था अनुसार वैश्य पुत्र वैश्य कर्म ही करता था । क्योंकि व्यापार में एक स्थान से दूसरे स्थान जाना पड़ता था इसी कारण वैश्यजनों का सर्वत्र प्रसार होता गया और जिसका व्यापार जहां स्थापित हो गया वह वहीं के होकर रह गए । कालांतर में उन्होंने अन्य वर्गों की अपेक्षा अपनी अलग पहचान बनाने के लिए एक नया नाम( उप वर्ग) रख लिया, जिससे प्रारंभ में एक वैश्य समाज तमाम उपवर्गों में बंट गया। मुगल बादशाह अकबर के समय में लिखी आईने अकबरी में 84 वैश्यों के नाम उल्लिखित हैं। साथ ही उसी समय 354 वैश्य उप वर्गों के अस्तित्व का पता लगा था जिनके नाम डॉ रामेश्वर दयाल गुप्ता द्वारा लिखी वैश्य समुदाय के इतिहास के द्वितीय अध्याय में उल्लिखित है इतना ही नहीं अंग्रेजी शासनकाल में अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त भारतविद टाड महोदय ने एक जैनयति की सहायता से वैश्य उपवर्गों की एक वृहत सूची बनाने का प्रयत्न किया था, उसमें अट्ठारह सौ जातियों की सूची मिली किंतु फिर भी पूर्ति का ठिकाना न जानकर टाड उससे विरत रहे।( देखें जाति भास्कर पृष्ठ 273)
अयोध्यावासी वैश्य कौन- इन्हीं में से एक उपजाति अयोध्या नगरी में निवास करती थी यह काफी समृद्ध और वैभवशाली थी। श्री ज्वाला प्रसाद मिश्र कृत जाति भास्कर ग्रंथ ( पृष्ठ 320 ) के अनुसार - "अयोध्या में निवास करने के कारण यह अयोध्यावासी वैश्य कहलाए, युक्त प्रदेश के अनेक स्थान और बिहार प्रांत में इनका निवास है।" इनके संदर्भ में पंडित छोटे लाल शर्मा वैश्य जयपुर फुलेरा अपने ग्रन्थ 'जाति अन्वेषण' प्रथम भाग के पृष्ठ 224 पर लिखते हैं - यह एक व्यस्त जाति है इन्हें अवधी बनिया कहते हैं । यह जाति बिहार तथा युक्त प्रदेश में है । हिंदुओं को सप्त पुरी में अयोध्या भी एक पुरी है । प्राचीन इतिहास व पुराणों में अयोध्यापुरी की बड़ी महिमा है। भगवान राम के समय जो वैश्य थे उन पर मुसलमानी अत्याचार हुआ। औरंगजेब ने अयोध्या का नाश किया वहीं मंदिरों की मस्जिद बनवाई। तब यह व्यस्त जाति भी विपत्ति बस इधर-उधर भाग निकली और दूर दूर जाकर अवधी बनिया और अयोध्यावासी बनिया कहे जाने लगे ।
जैसा कि स्पष्ट हो चुका है कि अयोध्यावासी वैश्य, वैश्य समाज का ही एक अंग है , और अयोध्या के आदि निवासी होने के कारण अयोध्यावासी कहलाए । किंतु इनका प्रथक से से भी पूर्ण इतिहास है जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि अयोध्यावासी वैश्य का संपूर्ण भारत में विस्तार कैसे हुआ अयोध्यावासी वैश्य महासभा के तत्कालीन महामंत्री श्री दुर्गा प्रसाद गुप्ता द्वारा प्रकाशित विवरण अनुसार
हिंदू समाज व्यवस्था में वैश्य वर्ण का विशेष महत्व है वैश्य वर्ण अपने स्थान वंश व व्यवसाय आदि कारणों से विभिन्न वर्गों मैं विभाजित हो गया यथा अग्रवाल ओमर दोसर माथुर आदि इन्हीं रूपों में से एक उप वर्ग है अयोध्यावासी वैश्य। अयोध्यावासी वैश्य का विस्तार रामायण काल से प्रारंभ होता है रामचरितमानस में उल्लेखनीय है
जहां राम तहाँ सबुई समजू।
बिनु रघुबीर अवध नहीं काजू ।।
और रामचंद्र जी के वन गमन पर
सहि न सके रघुवीर बिरहागी ।
चले लोग सब ब्याकुल भागी ।।
चलत राम लखि अवध अनाथा ।
निकल लोग सब लागे साथा ।।
अयोध्या नगर निवासी तमसा नदी के तट तक आए। एक रात जब अवध निवासी निद्रा लीन थे तभी रामबन चले गए । जाग्रत अवस्था में वह रामचंद्र जी को न पाकर बहुत दुखी हुए। रामचंद्र जी किधर गए:
"राम राम कहि चहुँ दिशि धावहिं ।"
अंत में अधिकांश नर-नारी अयोध्या वापस लौट आए।
यह विधि करत प्रलाप कलापा।
आये अवध भरे परितापा ।।
परंतु वैश्य समाज नहीं लौटा। रामचरितमानस में उल्लिखित यह चौपाई हमारा प्रमाण है:
'भयहु विकल बड़ बनिक समाजू' और इस प्रकार वैश्य वर्ण कि लोग वापस घर नहीं लौटे,चित्रकूट के निकटवर्ती स्थानों एवं मध्य प्रदेश महाराष्ट्र बिहार आदि प्रदेशों में फैल गए। वैश्योचित कर्म कृषि व्यापार एवं उद्योग से संबंधित कार्यों में लग गए। मूलतः अयोध्या के निवासी होने के कारण अयोध्यावासी वैश्य कहलाए।
यह तो था महासभा द्वारा प्रकाशित विवरण अनुसार विस्तार का कारण जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि बांदा इत्यादि क्षेत्रों में अयोध्यावासी वैश्य का बाहुल्य क्यों है ? (भगवान राम चित्रकूट में बनवास करते थे) किंतु दक्षिण भारतीय क्षेत्रों (महाराष्ट्र, गुजरात) में अयोध्यावासी वैश्यों के पहुंचने के संदर्भ में अन्वेषण जारी रहा। क्योंकि भगवान राम जब रात्रि में उठकर बनवास गए थे तभी सभी लोग अनुमान से ही चारों दिशाओं में उन्हें खोजने गए थे फलस्वरूप वह चारों दिशाओं में अन्य स्थानों पर पहुंचते गए क्योंकि उनका राम प्रेम इतना अधिक था कि वे बिना राम के अयोध्या लौटना ही नहीं चाहते थे फलस्वरुप वह वहीं पर निवास करने लगे इसी कारण न केवल अयोध्या एवं बांदा एवं चित्रकूट के समीपवर्ती क्षेत्रों में वरन संपूर्ण भारत में अयोध्यावासी वैश्य निवास करते हैं।
इस संदर्भ में ब्रह्म पुराण में वर्णित चक्षुस्तीर्थ महात्मय में उल्लिखित राम के परम भक्त मणि कुंडल का उल्लेख किया जाना आवश्यक है। भगवान राम को ढूंढते - ढूंढते श्रेष्ठ अयोध्यावासी वैश्य मणिकौशल एवं उनका पुत्र मणिकुण्डल गोदावरी नदी के तट पर अवस्थित भौवन नगर पहुंचे और वहीं पर निवास करने लगे। भौवन नगर पर उस समय महाराज भौवन राज्य करते थे । उसी नगर के एक वृद्ध ब्राह्मण कौशिक के पुत्र गौतम से मणि कुंडल की मित्रता हो गई। ब्राह्मण पुत्र गौतम ने मणि कुंडल को विदेश व्यापार हेतु सहमत किया। मणि कुंडल और गौतम जब विदेश व्यापार पर गए तो एक स्थान पर मणिकुंडल से अनावश्यक विवाद कर उसका धन हरण कर लिया तथा दोनों हाथ काटने के उपरांत उसकी दोनों आंखें भी फोड़ कर मणि कुंडल को वहीं पर छोड़ गया । संयोगवश उधर से विभीषण निकले । सदाचारी मणिकुंडल ने भगवान राम के वनवास के कारण अयोध्या छोड़ने से लेकर गौतम द्वारा किए गए छल का पूरा कथानक कह सुनाया। उस की ऐसी दशा देखकर व सुनकर एवं यह जानकर कि यह अयोध्यावासी वैश्य हैं, वैभीषणि ने अपने पिता विभीषण के सहयोग से शुक्ल पक्ष एकादशी को विशल्यकरणी महौषधि (केवल चक्षुस्तीर्थ में प्राप्त) द्वारा उसे सर्वांग सुंदर रूप पुनः प्रदान किया । तदोपरांत महापुर के राजा महाबली की एकमात्र पुत्री का उपचार मणि कुंडल जी ने उसी विशल्यकरणी महौषधि द्वारा किया जिससे प्रसन्न होकर अपने वचन अनुसार महाराजा ने अपनी पुत्री का विवाह मणि कुंडल से कर उसे राज्य दे दिया । तत्पश्चात मणिकुंडल के राज्य (सौराष्ट्र- महाराष्ट्र) में प्रश्रय एवं सुविधाएं मिलने के कारण अन्य अयोध्यावासी वैश्य भी वही जाकर बस गए और आज भी निवास कर रहे हैं (देखे संदर्भ ब्रह्मपुराण 170/1 से 170/85)
गोत्र परम्परा पर कई किवदंतियां प्रचलित है:
गोत्र परम्परा
अयोध्यावासी वैश्य में गोत्र परंपरा भी मौजूद है गोत्र के प्रश्न पर अयोध्यावासी वैश्यो के समाज मनीषियों के प्रमुख विचार आगे उल्लिखित होंगे किंतु यहां पर इतना स्पष्ट करना आवश्यक समझता हूं
अयोध्यावासी वैश्यो में दो गोत्र प्रचलित हैं
1> कौशल गोत्र 2> कश्यप गोत्र
1> कौशल गोत्र
अधिकांश अयोध्यावासी वैश्य अपना गोत्र कौशल मानते हैं और उनमें से कुछ प्रतिशत नाम के साथ कौशल लिखते भी हैं । कौशल गोत्र प्रवर्तन के संदर्भ में एकमत निम्नानुसार है जिसे चार्ट द्वारा व्यक्त किया जा रहा है।
कमल भैया जी के इसी मत के समर्थन में अयोध्या के स्वजातीय समाजसेवी स्वर्गीय पाटेश्वरी प्रसाद जी अपनी कौशल गोत्र अयोध्यावासी वैश्य पुस्तक में लिखते हैं "जब वशिष्ठ जी अवध प्रदेश के राजगुरु थे । वे राजधानी अयोध्या में रहते थे। महाराज रघु के शासनकाल में उन्होंने उसका नाम अपने सबसे छोटे पुत्र कौशल ऋषि के नाम पर कर दिया तब से वह कौशल राज्य कहलाने लगा। कौशल ऋषि से हम सब का प्रादुर्भाव होने व अयोध्या में निवास करने के कारण अयोध्यावासी वैश्य व कौशल गोत्र प्रसिद्ध हो गया।"
2> कश्यप गोत्र
अन्य वैश्य उपवर्ग के समान - अयोध्यावासी वैश्य में कुछ लोगों की मान्यता है कि गोत्र कश्यप है ।
उनकी मान्यता है कि सभी वैश्य कश्यप जी की संतान हैं । कौशल भी उनमें से एक थी इसलिए हम लोगों का गोत्र कश्यप ही है । इसे संक्षेप में इस प्रकार व्यक्त कर सकते हैं।
ब्रम्हा ---> मनु---->कश्यप-----> कौशल
सभी मत अपने अपने दृष्टिकोण से सर्वथा उचित है किंतु गहन अध्ययन एवं शोध के अभाव में विशेष जानकारी प्राप्त न हो सकी । किंतु ब्रह्म पुराण, मनुस्मृति, अग्रवंश का इतिहास, जाति भास्कर ग्रंथ वैश्याणाम गौरवः, जाति अन्वेषण, वैश्य समुदाय का इतिहास इत्यादि ग्रंथों के अध्ययन के उपरांत मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि यह मत कुछ उचित लगता है कि "जब वशिष्ठ जी अवध प्रदेश के राजगुरु थे । वे राजधानी में रहते थे । महाराजा रघु के शासनकाल में उन्होंने उसका नाम अपने सबसे छोटे पुत्र कौशल ऋषि के नाम पर कर दिया तब से वह कौशल राज्य कहलाने लगा। कौशल ऋषि से प्रादुर्भाव होने व अयोध्या में निवास करने के कारण अयोध्यावासी वैश्य कौशल गोत्र प्रसिद्ध हो गया"। किंतु इसमें भी यह जानकारी इस विवाद में पड़े बिना कि कौशल ऋषि वशिष्ठ के वंशज थे अथवा कश्यप के जोड़ना चाहूंगा कि-
यह कौशल ऋषि वही थे जिन्होंने महाराजा अग्रसेन के 18 पुत्रों में से एक कानचंद्र को शिक्षा प्रदान की थी इन्हीं कौशल ऋषि के शिष्यत्व के नाम पर ही अग्रवाल बंधुओ में कौशल/ कंसल /कासल /कासिल गोत्र का प्रवर्तन हुआ है । हम उन्हीं महापुरुष कौशल ऋषि की संतान हैं। और चूँकि कश्यप ऋषि वैश्यों के प्रवर्तक हैं अतएव हमें इस मतभेद को नजरअंदाज करना चाहिए और समाज सेवा में इसी तरह जुटे रहना चाहिए।
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मणिकुंडल महाराज
ध्यानम्:
सुगौरवर्णम्, धर्मावतरम्, सिंहासनारूढ़ किरीट भूषितम्।
पीतवस्त्रावृता मुखतेजवरणम् करबद्धमुद्रे अर्धोन्मीलित नेत्रम्।।
कर्णाभ्याम् कुण्डले, कंकणे हस्ताभ्याम् शोभितम्।
वन्दे ध्यानस्थ रामभक्तम् मणिकुण्डलम् नमामि।।
सुन्दर, गोरे रंग के, धर्म के अवतार स्वरूप मणिकुण्डल जी सिर पर मुकुट धारण कर सिंहासन पर विराजमान हैं। वे शरीर पर पीताम्बर धारण किये हुए है, दोनों हाथ प्रणाम की मुद्रा में है। प्रभु के प्रति भक्तिभाव में निमग्न उनके नेत्र अधखुले है। उनके चेहरे से तेज निकल रहा है। वे कानों में कुण्डल और हाथों में कंकण पहने हुए ध्यान मुद्रा में बैठे हैं। ऐसे प्रभु श्री राम के भक्त मणिकुण्डल जी का ह्रदय में स्मरण करते हुए उन्हें नमस्कार करता हूँ।
महाराजा मणिकुंडल महाराज का संक्षिप्त जीवन परिचय:
श्री अयोध्यावासी वैश्य वंश प्रवर्तक महाराजा मणिकुंडल महाराज का संक्षिप्त जीवन परिचय दिया जा रहा है जिससे समाज बंधुओं को जानकारी मिल सके।
सृष्टि काल से मानव धर्म को गौरवान्वित वाले महामानव समय-समय पर जन्म लेकर राष्ट्र एवं समाज को सही दिशा देते रहे हैं । वैश्य समाज में भी मनु काल से ही ऐसे महामानव अवतरित होते रहे हैं जिन्होंने सत्य,धर्म, परोपकार एवं आदर्श पथ का अनुगमन करने हेतु अपना सर्वस्व त्याग दिया किंतु क्षण मात्र के लिए भी पथ भ्रमित नहीं हुए ऐसे श्री अयोध्यावासी वैश्य वंश प्रवर्तक महाराज मणि कुंडल महाराज हैं ।
महाराज मणिकुंडल जी सौम्य व्यक्तित्व के धनी सदाचारी युगपुरुष प्रातः स्मरणीय महाराज जी का जन्म त्रेता युग में महाराजा दशरथ के शासनकाल में मणिकौशल जी की धर्मपत्नी शाकम्भरी के गर्भ से पौष पूर्णिमा को हुआ था । मणिकौशल जी अयोध्या के प्रमुख व्यापारियों में गिने जाते थे । जिस समय महाराजा दशरथ की आज्ञा अनुसार भगवान राम वन जा रहे थे उस समय मणिकौशल जी के नेतृत्व में अयोध्या के वणिकों ने भगवान राम को रोकने का काफी प्रयास किया । अंत में प्रयास निष्फल हो जाने पर वे सभी उनके साथ चल दिये ।
भगवान राम ने जब यह देखा कि अयोध्यावासी वन में भी मेरे साथ जाने हेतु दृढ़ प्रतिज्ञ है तो एक रात्रि जब सभी लोग निद्रामग्न थे, भगवान राम अपनी पत्नी सीता एवं अनुज लक्ष्मण के साथ तमसा तट पर आए और चित्रकूट पहुंच गए ।
प्रातः काल जब परिजनों ने देखा कि भगवान राम वहां से जा चुके हैं तो शोकाकुल होकर उनमें से कुछ अयोध्या वापस लौट गए इसके विपरीत कुछ लोग अपने अपने अनुमान से विभिन्न दिशाओं में चल दिए ।
जो लोग चित्रकूट की ओर गए उन्हें तो श्रीराम मिल गए अतेएव वह सब वामदा अब बांदा नामक स्थान पर प्रवास करने लगे जो कालांतर में नगर के रूप में विकसित होकर उनका स्थाई निवास बन गया । अयोध्यावासियों की कई टोलियां इधर-उधर अन्य दिशाओं में भ्रमित हो गई । नगर श्रेष्टि मणिकौशल अपने पुत्र मणिकुंडल के साथ दक्षिण दिशा की ओर चल दिए । काफी समय तक यत्र तत्र भटकने के उपरांत उनके भौवन नगर जो गोदावरी नदी के तट पर अवस्थित है, एक समृद्ध नगर था, में निवास करने की जानकारी मिलती है ।
राम वन गमन के समय मणि कौशल जी के साथ अयोध्या से चले बालक मणिकुंडल जी ने भौवन नगर में युवावस्था को प्राप्त किया । यहां पर उनकी मित्रता कई अन्य युवकों से हो गई जो विभिन्न जाति वर्ग एवं विचारधाराओं के थे । मणिकुंडल जी एक धर्म परायण, सत्यवादी, सिद्धांतवादी, पुण्य आत्मा, आस्तिक नवयुवक थे । वे अपने व्यापार में भी छल कपट एवं बेईमानी से दूर रहते थे । धर्म एवं साहित्य के कार्यों में यथेष्ट दान इत्यादि भी करते थे । उनकी उदार वृत्तियों के कारण उन्हें व्यापार में भी अत्यधिक लाभ हुआ और आर्थिक समृद्धि उनके चतुर्दिक निवास करने लगी ।
मणिकुण्डल जी के पास धन एवं आर्थिक संपन्नता देखकर उनके एक पड़ोसी कोशिक के पुत्र गौतम के मन में श्री मणिकुंडल जी का धन हरण करने का विचार आया था । उसने उन्हें विदेश व्यापार में अत्यधिक लाभ का आकर्षण दिखाकर संपूर्ण धन लेकर अन्यत्र चलने का परामर्श दिया श्री मणिकुंडल जी बातों में आ गए ।
विदेश व्यापार करते समय एक स्थान पर गौतम ने अनावश्यक विवाद करने के लिए मणि कुंडल जी से पाप, अधर्म एवं असत्य के मार्ग की प्रशंसा की इसी पर मणिकुंडल जी ने इसे निम्न प्रवृत्ति बतलाते हुए सत्य, धर्म एवं पुण्य के कार्य करने का परामर्श दिया । किंतु गौतम क्यों मानने वाला था, उसे तो विवाद का बहाना चाहिए था । मणिकुंडल जी की बातों पर गौतम क्रोधित हो गया उसने मणिकुंडल जी पर प्रहार कर उनके दोनों हाथ पैर काट दिए, इतने पर भी उसे संतोष ना हुआ, उसने उनकी दोनों आंखें फोड़ दी और श्री मणिकुंडल जी को तड़पता छोड़ कर संपूर्ण धन लेकर चला गया ।
गोदावरी नदी के किनारे उक्त स्थान पुराणों में चक्षुस्तीर्थ के नाम से वर्णित है वहां प्रत्येक शुक्ल पक्ष एकादशी को विभीषण भगवान योगेश्वर के दर्शन करने आते थे । कहते हैं कि नियमित दर्शन के कारण वे लंका के राजा बने । वहां पर हाथ, पैर और नेत्रों से विहीन मणिकुंडल जी जब ऐसी मरणासन्न स्थिति में थे उसी समय शुक्ल एकादशी होने के कारण लंकाधिपति विभीषण अपने पुत्र वैभीषणि के साथ वहां पर पधारे । तड़पते कलपते मणिकुंडल जी की करुण दशा से द्रवित हो वैभीषणि ने मणिकुंडल जी से उनकी दशा का कारण पूछा तब मणिकुंडल जी ने राम वन गमन के कारण, अयोध्या छोड़ने से लेकर, गौतम द्वारा किए गए छल तक का पूर्ण कथानक कह सुनाया ।
यह जानकर कि यह धर्म परायण अयोध्यावासी वैश्य है, और राम का भक्त है और उन्होंने अपने पिता श्री विभीषण के सहयोग से चक्षुस्तीर्थ नामक पावन स्थल में प्राप्त विशल्यकरणी महौषधि जो हनुमान जी द्वारा लक्ष्मण बूटी ले जाते समय पर्वत से गिर गई थी और वहां पर पुनः उग आई थी, के द्वारा मणिकुंडल जी को सर्वांग सुंदर रूप प्रदान किया तत्पश्चात राम नाम को सर्वत्र प्रसारित करते हुए मणि कुंडल जी देश विदेश का भ्रमण करने लगे भ्रमण करते हुए एक बार मणिकुंडल जी महापुर नमक राज्य में पहुंच गए ।
वहां के महाराजा महाबली की एकमात्र पुत्री मरणासन्न स्थिति में थी । सभी वैद्य, राज वेद्म, तांत्रिक एवं पंडितों ने जवाब दे दिया था । मानव कल्याण की भावना से वे राजदरबार गए, और राजकुमारी को स्वस्थ कर देने का आश्वासन दिया । चक्षुस्तीर्थ का महत्व कहें या राम नाम की महिमा कि विभीषण से प्राप्त दिव्य मंत्रों के साथ विशल्यकरणी देते ही राजकुमारी स्वस्थ हो गई । प्रसन्न होकर राजा ने आधा राज्य देने का प्रस्ताव मणिकुंडल जी के समक्ष रखा, मणि कुंडल जी ने कहा कि मैंने राज्य या इनाम के लोभ में राजकुमारी को स्वस्थ नहीं किया वरन् यह तो मानव होने के नाते मेरा कर्तव्य था । इस प्रकार के विस्तृत वार्तालाप से प्रभावित हो महाबली ने पूर्ण राज्य मणिकुंडल जी को दे दिया । मणिकुंडल जी ने महारूपा से विवाह कर राज्यकार्य संभाल लिया ।
महाराजा होने के बाद भी मणिकुंडल जी के विचारों प्रवृत्तियों अथवा प्रकृति में कोई परिवर्तन नहीं आया । उसी सत्य, निष्ठा, धर्मपरायणता, न्यायप्रियता के आदर्श आप जीवन के अंत तक व्यवहार् किए रहे । आपकी चर्चा सुनकर अन्यत्र बसे अयोध्यावासी वैश्य भी आपके राज (वर्तमान सौराष्ट्र महाराष्ट्र) आकर बस गए ।(वर्तमान में अयोध्यावासी वैश्य समाज के लोग पूरे भारत में एवं विदेशों में भी निवासरत है) आपका जीवन सत्य, असत्य, धर्म, अधर्म, पाप, पुण्य, के संघर्ष एवं उदात्त्वृत्तियों के विजय का प्रतीक है ।
हम सभी को इस बात पर गर्व करना चाहिए कि ऐसे महापुरुष हमारे पूर्वज थे । हममें उन्हीं महापुरुषों का रक्त संचारित है । वस्तुत: गौरवमय अतीत की नींव पर वर्तमान का भवन निर्मित होता है, जिसमें उन्नत भविष्य की संभावना बलवती होती है । आप संपूर्ण वैश्य समाज ही नहीं वरन भारत देश की निधि है । हमें ऐसे युग पुरुष की जयंती प्रत्येक वर्ष पौष पूर्णिमा को मनानी चाहिए, तथा उनके जीवन से सद्कर्मों की प्रेरणा लेकर अपने जीवन को कृतार्थ करना चाहिए एवं समाज तथा राष्ट्र के नैतिक उत्थान में सहभागी होना चाहिए ।